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338 :: मूकमाटी-मीमांसा पापी से नहीं, पाप से घृणा करने सम्बन्धी धर्म-नीति ईसा की पापी महिला-रक्षा से सम्बन्धित है :
"ऋषि - सन्तों का/सदुपदेश - सदादेश/हमें यही मिला कि
पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।" (पृ.५०-५१) सल्लेखना का रहस्य भी योगियों, व्रतियों, श्रावकों को जानने योग्य है । वस्तुत: शरीर और कषाय के कृश होने पर ही तो करणत्रय की लग्न आती है । वह इस प्रकार वर्णित है :
"सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! काया को कृश करने से/कषाय का दम घुटता है/"घुटना ही चाहिए। और,/काया को मिटाना नहीं,/मिटती-काया में/मिलती-माया में म्लान-मुखी और मुदित-मुखी/नहीं होना ही/सही सल्लेखना है, अन्यथा
आतम का धन लुटता है, बेटा!" (पृ. ८७) परम आर्त और परम अर्थ की गहराई यह है :
"सूक्ष्माति-सूक्ष्म दोष की पकड़,/ज्ञान का पदार्थ की ओर/दुलक जाना ही परम आर्त पीड़ा है,/और/ज्ञान में पदार्थों का/झलक आना हीपरमार्थ क्रीड़ा है/एक दीनता के भेष में है/हार से लज्जित है, एक स्वाधीनता के देश में है/सार से सज्जित है। पुरुष की पिटाई प्रकृति ने की,/प्रकारान्तर से चेतन भी/उसकी चपेट में आया गुणी के ऊपर चोट करने पर/गुणों पर प्रभाव पड़ता ही है/ आघात मूल पर हो
द्रुम सूख जाता है,/दो मूल में सलिल तो"/पूरण फूलता है'।” (पृ. १२४-१२५) __ अर्थशास्त्री को अर्थ के अर्थ की और परमार्थ के पलड़े की चुनौती निम्नपंक्तियों में प्रस्तुत की गई है जो रागी का लक्ष्यबिन्दु अर्थ और त्यागी का परमार्थ दर्शाता है :
“अन्तिम भाग, बाल का भार भी/जिस तुला में तुलता है वह कोयले की तुला नहीं साधारण-सी,/सोने की तुला कहलाती है असाधारण ! सोना तो तुलता है/सो अतुलनीय नहीं है/और/तुला कभी तुलती नहीं है सो अतुलनीय रही है/परमार्थ तुलता नहीं कभी/अर्थ की तुला में अर्थ को तुला बनाना/अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है और/सभी अनर्थों के गर्त में/युग को ढकेलना है।
अर्थशास्त्री को क्या ज्ञात है यह अर्थ ?" (पृ. १४२) अनेकान्त का उदाहरण सापेक्षता के रहस्य में डूबा हुआ है :
"अगर सागर की ओर/दृष्टि जाती है,/गुरु-गारव-सा कल्प-काल वाला लगता है सागर;/अगर लहर की ओर/दृष्टि जाती है,