________________
'मूकमाटी' : भावों के बिन्दु, रेखाएँ और तल
प्रो. लक्ष्मी चन्द्र जैन 'मूकमाटी' महाकाव्य या खण्ड काव्य आचार्य श्री विद्यासागर मुनि महाराज की एक अद्भुत कृति है जिसमें आत्मा के भव्य परिणामों की सशक्त लहरें अप्रतिम शैली में अभिव्यक्ति पा सकी हैं । मूकमाटी नायक और शिल्पी अधिनायक के आलम्बन द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति से लेकर अर्वाचीन संस्कृति का भावात्मक एवं समग्र चित्रण गहरी, अत्यन्त गहन अनुभूतिमय साधनों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। अभी तक हिन्दी में ऐसी मौलिक रचना देखने में नहीं आई है जिसमें व्यक्तिवाद, समाजवाद, आतंकवाद आदि अनेक उलझे-सुलझे वादों का संवादों एवं विसंवादों, भाषा एवं अभाषा तथा भावों और अभावों द्वारा स्पष्टतम विश्लेषण किया गया हो । साथ ही धर्म नीति, अर्थ नीति, काम नीति, राज नीति, मोक्ष नीति का यथायोग्य स्थानों पर सुरीतिया उल्लेख किया गया है। इस प्रकार आत्मा की अनादि से अन्त तक की कहानी को गागर में सागर भरकर एक रूहानी जहाँ की प्रस्तुति अपने आप में एक पैरेडिग्म शिफ्ट (Paradigm shift) है जो युग-युगान्तरों में ही दुर्लभता से देखने में आता है । महान् तपस्वी एवं कविहृदय आचार्यश्री ने सत्य महाव्रत से संलग्न, आधुनिक प्रसंगयुक्त ऐसे सत्य को हित-मित-प्रिय रूप में इस कृति में आविर्भावित किया है जिसके सम्बन्ध में कहा जाता है :
"Truth is a trial of itself, And needs no other touch, And purer than the purest gold,
Refine it never so much.” वस्तुत: मुक्ति मार्ग तो कंटकाकीर्ण है ही, उसका निरूपण भी कला, विज्ञान और तन्त्र का संयुक्त प्रयास हुआ करता है जिसमें आचार्यश्री की लेखनी अनदेखे, अनजाने, अनसुने रूप से सिद्धहस्त है।
मेरे जैसे गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक को इसमें क्या उपलब्ध हो सकता है, दिखाई दिया है, उसकी एक झलक देना आवश्यक तो है ही, प्रेरणास्पद भी हो सकता है। प्रेरणास्पद साहित्य ही चिरजीवी (Classical) एवं अमर हुआ करता है और विश्वविद्यालयों में हर शोभा को प्राप्त कर लेता है। हम इसके खण्डश: कुछ अंश उद्धृत करते हुए उन गहराइयों
और ऊँचाइयों के बिन्दु, रेखापथ तथा तलों को स्पर्श करते चलेंगे जो मुसाफिर को अपनी मंज़िल तक पहुँचने में अपने मार्ग में मिलते चले जाते हैं। यहाँ परिणामों की, भावों की पहुँच के मापदण्ड क्या हों, यह तो अपनी-अपनी रुचि का ही प्रश्न बनकर रह सकता है। ____ सन्धिकाल का अपना विशेष महत्त्व है और सन्धि श्रेयसी की पहचान, दुरभि-सन्धि के अभाव रूप प्रस्तुति यह
"न निशाकर है, न निशा/न दिवाकर है, न दिवा/अभी दिशायें भी अन्धी हैं; पर की नासा तक/इस गोपनीय वार्ता की गन्ध/"जा नहीं सकती! ऐसी स्थिति में/उनके मन में/कैसे जाग सकती है/""दुरभि-सन्धि वह !"
(पृ.३) भावधारा या मनोहृदय धारा, संगति गुण से अनेक रूप फलित होती चली जाती है जो जीवन धारा का रूप