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मूकमाटी-मीमांसा :: 335
बात में से बात की उद्भावना का, तत्त्व चिन्तन के ऊँचे छोरों को देखने-सुनने का, लौकिक तथा पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों तथा तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित अनेक तथ्यों का आगार है यह चतुर्थ खण्ड। स्वर्ण कलश उद्विग्न है, क्योंकि कथा नायक ने उसकी उपेक्षा करके मिट्टी के घड़े को आदर क्यों दिया है। इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए स्वर्ण कलश एक आतंकवादी दल बुलाता है, जो आते ही परिवार में आतंक लीला आरम्भ कर देता है, तथा सेठ अपने परिवार की रक्षा कैसे करता है, इस सब का चित्रण नाटकीयता से परिपूर्ण है । आतंकवाद के प्रासंगिक चित्रण में सुविज्ञ कवि विद्यासागरजी ने आतंकवाद को जीवन का अभिशाप बताते हुए उससे उबरने की प्रेरणा दी है- “जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह" (पृ. ४४१) । साधु की वन्दना के बाद स्वयं आतंकवाद कहता है :
"हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है,/यहाँ सुख है, पर वैषयिक
और वह भी क्षणिक !/यह "तो''अनुभूत हुआ हमें,/परन्तु
अक्षय सुख पर/विश्वास हो नहीं रहा है।” (पृ. ४८४-४८५) गुरु चाहे कितने उपदेश करें, किन्तु कल्याण पुरुष यत्न से ही सम्भव है।
यह महाकाव्य शिल्प की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है । यहाँ शब्दालंकार और अर्थालंकार की छटा महनीय है। कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का । इस महाकाव्य में अनेक शब्द ऐसे आए हैं जिनके प्रत्येक अक्षर का एक नूतन अर्थ उद्घाटित करना विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है :
"कला शब्द स्वयं कह रहा कि/'क' यानी आत्मा-सुख है
'ला' यानी लाना-देता है" (पृ. ३९६) 'मूकमाटी' महाकाव्य में अनेक ऐसे स्थल हैं, जहाँ शब्द की ध्वनि अनेक साम्यों की प्रतिध्वनि में अर्थान्तरित हो रही है। उदाहरणस्वरूप :
"युग के आदि में/इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।” (पृ. २८) किन्ही प्रसंगों के अतिविस्तार ने इस कृति को कहीं-कहीं उबाऊ बना दिया है। 'आतंकवाद' का वर्णन अति विस्तारवादी है। इसके साथ ही यह कृति दर्शन और अध्यात्म से बोझिल है। कल्पना के सुकुमार कलेवर से झाँकता दर्शन आम पाठकों को आन्दोलित करता है । किन्तु यह भी सत्य है कि अध्यात्म और दर्शन के प्राचुर्य ने इस कृति की काव्यात्मकता का नाश नहीं किया है। यदि 'मूकमाटी' नामक महाकाव्य को 'जीवन का उद्बोधन' कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि इस कृति का लक्ष्य मानव को माया के अन्धकार से जाग्रत करना है । माटी यद्यपि मूक प्रतीत होती है किन्तु व्यथा कथा को छिपाकर भी सार्थक जीवन की पहचान है तथा स्वर्ण कलश की तुलना में 'कुम्भ' अधिक मूल्यवान् है । माटी ही सोने को उपजाती है, स्वर्ण 'मिट्टी' का जन्मदाता नहीं। इस महाकाव्य का दर्शन निखिल मानव जाति का उद्बोधन मिट्टी के घड़े के माध्यम से करता प्रतीत हो रहा है। मानवीय जीवन का यह कुम्भ अपने सत्कार्यों के स्वर्ण से, साधना के द्वारा ही आलोकित हो सकता है।
____ समीक्ष्य कृति 'मूकमाटी' की भाषा प्रसाद गुणमयी है । सन्त कवि विद्यासागरजी ने सर्वत्र संस्कृतनिष्ठ एवं साहित्यिक हिन्दी का प्रयोग किया है। यह महनीय कृति मनीषियों में निश्चय ही समादृत होगी।