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334 :: मूकमाटी-मीमांसा
करती है :
“स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से, ...अधम पापियों से/पद- दलिता हूँ माँ ! " (पृ. ४)
प्रथम खण्ड के अन्य महत्त्वपूर्ण विचार बिन्दु हैं- संगति के प्रभाव को सूचित करना (पृ. ८), जीवन के कटु सत्यों को उद्घाटित करना (पृ. ११), सम्प्रेषण की मीमांसा करना (पृ. २२), सरल निष्कलुष जीवन की सार्थकता, तथा जीवन की विडम्बना (पृ. ४) को सिद्ध करना आदि। 'मूकमाटी' नामक महाकाव्य का द्वितीय खण्ड है- 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं।' माटी खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है, जिससे उसका सिर लहूलुहान हो जाता है, किन्तु वह बदला लेने की सोचता है तथा कुम्भकार को अपनी असावधानी पर ग्लानि होती है, अत: वह कहता है - " खम्मामि, खमंतु मे ।" इसी खण्ड में सन्त कवि ने अनेक आयामों पर गम्भीर चिन्तन प्रदान किया है। नव रसों को परिभाषित करने के साथ-साथ संगीत पर भी आध्यात्मिकता का रंग चढ़ा दिया है:
"मेरा संगी संगीत है/सप्त-स्वरों से अतीत ..!" (पृ. १४५)
तत्त्वदर्शन तो इस कृति में पदे पदे है । 'उत्पाद - व्यय - धौव्ययुक्तं सत्' सूत्र का व्यावहारिक भाषा में चमत्कारी अनुवाद किया है :
“आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है और/ है यानी चिर - सत् / यही सत्य है यही तथ्य..!” (पृ. १८५)
वस्तुतः उच्चारण मात्र 'शब्द' है, शब्द का अर्थ समझना 'बोध' तथा बोध का अनुभूति में आचरण करना 'शोध' है । इस महाकाव्य के तीसरे खण्ड का शीर्षक है-- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' मन, वचन और कर्म / क की पवित्रता से सम्पादित शुभकर्म लोक कल्याणकारी होते हैं :
"स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर / सागर में प्रेषित किया है।" (पृ. १९३) इस खण्ड में कुम्भकार ने माटी की विकास कथा के माध्यम से पुण्य कर्म के सम्पादन से उत्पन्न महती उपलब्धि का चारु चित्रण किया है।
- इस महाकाव्य के चतुर्थ खण्ड का विषय है--'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' कुम्भ को अवे में तपाने की प्रक्रिया काव्यमयी है । अग्नि से कच्चा घड़ा कहता है :
" मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना / परम- धर्म माना है सन्तों ने ।” (पृ. २७७)
इस चतुर्थ खण्ड के विस्तृत फलक में अनेक कथा प्रसंग समाहित हैं । कुम्भकार अवे में तपे कुम्भ को सोल्लास बाहर निकालता है । इसी कुम्भ को कुम्भकार श्रद्धालु सेठ के सेवक के हाथों में समर्पित करता है। ले जाने से पूर्व वह उस कुम्भ को सात बार बजाता है तब सात स्वर उसमें से प्रतिध्वनित होते हैं :
" सा रे ग म यानी / सभी प्रकार के दु:ख / प ध यानी ! पद - स्वभाव और/नि यानी नहीं, / दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता ।" (पृ. ३०५ )