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‘मूकमाटी' महाकाव्य : जीवन का उद्बोधन
डॉ. (श्रीमती) महाश्वेता चतुर्वेदी
'मूकमाटी' एक ऐसे कवि का महाकाव्य है जो मात्र कवि नहीं, अपितु अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों का साधक है, जो अपनी आध्यात्मिक धरोहर के साथ चिर अनन्त यात्रा पर चलता हुआ, मुक्ति का अमर गायक है । इस कृति के रचयिता आचार्य विद्यासागरजी जैन दर्शन के तत्त्वज्ञ मनीषी हैं, इसके साथ ही 'यथानाम तथागुणाः' की उक्ति सार्थक सिद्ध करते हुए विद्या के सागर हैं, तथा इस विद्या के सागर को अज्ञान की लहरें स्पर्श भी नहीं कर सकतीं ।
स्वयं ही विद्या का सागर है, वह अपने लेखन द्वारा ज्ञानामृत का प्रसारक है, ऐसा ज्ञान, जो मानव को भवसागर से पार उतार सकता है । वस्तुतः विद्या का लक्ष्य है जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना - " विद्या हि का ? ब्रह्मगतिप्रदाय।” ‘मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन हिन्दी साहित्य के लिए एक अनोखी उपलब्धि है । यह सृजन अपने ढंग का अनोखा महाकाव्य है । तुच्छ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसे उद्बोधक सिद्ध करना किसी भी सुकवि महीयसी विशेषता होती है । इस महाकाव्य 'मूकमाटी' को आद्योपान्त पढ़ने के बाद कबीर की पंक्तियाँ हृदय गूंजने लगी : "माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रूँधे मोहि । इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रूँहूँगी तोहि । "
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जिस माटी को तुच्छ समझकर यह विवेकी मानव पद दलित बनाता है, अन्तत: उसी माटी में एक दिन वह स्वयं भी विलय हो जाता है । घड़े के निर्माण सोपान अनेक हैं- कुम्भकार द्वारा मिट्टी एकत्रित करना, उसमें जल मिश्रण करना, रौंदना, पिण्ड बनाना, चाक पर चढ़ाना, घुमाना, सुखाना, पुनः अवे पर चढ़ाना, तपाना, उतारना, पुनः परीक्षण करके उन्हें रखना । 'कुम्भ' बनने की ये सारी दशाएँ जीवन यात्रा की परिचायक हैं। जीवन की दशाएँ हैंजन्म, बढ़ना, परिवर्तन, विकास, क्षय होना तथा विनाश :
" जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षीयते, विनश्यति । ”
जन्म लेना, बढ़ना, परिवर्तन तथा अवे पर चढ़ाया जाना - प्रत्येक जीवन की संघर्ष यात्रा की कहानी है । वस्तुत: अग्नि में तप कर ही सोने में निखार आता है। इसी प्रकार मानवीय जीवन में भी तप कर ही निखार आता है एवं चन्दन भी घिस - घिस कर चारु सौरभ प्रदान करता है :
" दग्धं दग्धं पुनरपि पुन: कंचनं कान्तवर्णम् । धृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनः चन्दनं चारुगन्धम् ॥”
'मूकमाटी' महाकाव्य चार खण्डों में विभाजित है । इस महाकाव्य का प्रथम खण्ड माटी की प्राथमिक दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को व्यक्त करता है। मंगल घट का सार्थक रूप पाने के लिए आवश्यक है कि उसे कूट छानकर परिमार्जित किया जाए :
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'इस प्रसंग से / वर्ण का आशय / न रंग से है / न ही अंग से वरन्/ चाल-चरण, ढंग से है।" (पृ. ४७)
प्रथम खण्ड का प्रकृति वर्णन उल्लेखनीय है :
“ अबला बालायें सब / तरला तारायें अब, / छाया की भाँति अपने पतिदेव/चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो/छुपी जा रहीं ।" (पृ. २)
माटी का हृदयग्राही मानवीकरण स्पन्दित करता है, जब वह माँ धरती के सम्मुख अपने उद्गार व्यक्त