SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 328 :: मूकमाटी-मीमांसा धर्म-दर्शन के जय-जयकारों तक ही सीमित नहीं रह जाती अपितु उन दिशाओं को उत्क्रान्त कर नई स्व-स्पर्शी सम्भावनाओं के दर्शन करती है। वह चर्चा और चिकित्सा में ही नहीं रम जाती अपितु उसके विश्लेषण और ऊहापोह से निश्चित गन्तव्य तक पहुँचती-पहुँचाती भी है, और यही इस कविता की पृथक् आत्म विशेषता को रेखांकित करना समीक्षक की अनिवार्यता हो जाती है। कवि की क़लम सतह पर ही नहीं रुकी रहती, तह में भी उतरती है । तभी तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का आधुनिकीकरण प्रस्तुत करते हुए कहती है : "'वसु' यानी धन-द्रव्य/'धा' यानी धारण करना/आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) कलियुग की पहचान करा देते हुए कवि इसीलिए निर्मम शब्दों में कहते हैं कि जिसे सदा 'खरा' अखरता है वह है कलियुग की महिमा और सत्-युग में बुरा बूरा'-सा लगता है । सत्-युग की नई व्याख्या प्रस्तुत करता है कवि मन: “सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा!" (पृ.८३) ___ कवि की मूल दृष्टि निरन्तर चैतन्य की खोज में संलग्न है । चर्चा तो कवि अन्यान्य विषयों की करते भी हैं लेकिन उनका चिन्तन आध्यात्मिक दृष्टि बिन्दुओं से समन्वित ही है । कवि की प्रतिभा को दैवी केसर-स्पर्श है, जिसके कारण मिट्टी को भी पारस में बदलने की अद्भुत क्षमता-किमियागिरी उनकी लेखनी में है। 'दयाविसुद्धो धम्मो' यह सन्देश देकर काव्य का प्रथम सर्ग समाप्त होता है और नए भावबोध की यात्रा आरम्भ होती है। दूसरे सर्ग की चर्चा माटी के जीवन में, माटी के करुणामय कण-कण में नूतन प्राण फूंकने के मंगलाचरण से आरम्भ होती है। अपने विवेचन के लिए कवि प्रतिभा रामायण (जैन वाङ्मय के रामचरित प्रतिपादक ग्रन्थ 'पद्मपुराण' की कथा) से अनेकानेक सन्दर्भ लेते हुए दिखाई देती है। आचार्यप्रवर विद्यासागरजी ने अपने सदुपदेश को इतने आसान शब्दों में समझाया है कि विश्वविद्यालय का अध्यापक हो या बे-पढ़ा किसान भी उसे समान तन्मयता से जान-समझ सकता है । एक ही उदाहरण द्रष्टव्य है : "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०) इसी प्रकरण में कवि ने स्थिर मन को महामन्त्र की उपाधि देते हुए अस्थिर मन को पापतन्त्र - स्वच्छन्द कहा है । शान्ति की श्वास लेनेवाला सार्थक जीवन ही शाश्वत साहित्य की निर्मिति कर सकता है, यह बताकर साहित्य के सन्दर्भ में अपनी कविता का अर्घ्य इन शब्दों में दिया है : "हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy