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मृण्मय से चिन्मय तक की विकास-यात्रा : 'मूकमाटी'
प्रो. (डॉ.) विश्वास पाटील मनुष्य का जीवन वरेण्य है और श्रेष्ठतर है उसका अस्तित्व, क्योंकि यहाँ से सन्तत्व की राह होते हुए नर के नारायण बन सकने की मंज़िल तय की जा सकती है। भारतीय दर्शन अपनी-अपनी शब्दावली में इसी चिद्-धन-सत्ता की परिक्रमा करते हुए दिखाई देता है । भाषा, प्रदेश, शैली, संकेत के नाना रूपों और विभिन्नताओं के होते हुए भी उनकी अन्तिम गति एक है, लक्ष्य निश्चित है, आवश्यकता इस बात की है कि चलने वाला निश्चिन्त हो । यह तपती पगडण्डियों पर पादत्राण रहित यात्रा है, पंचाग्नि साधना है। साधना का यह मार्ग आग का दरिया है । एक बिन्दु की महासिन्धु में विलय हो जाने की यह विकास-यात्रा साधना की यशस्वी प्रक्रिया है।
___ सन्त महाकवि की प्रतिभा लघु से लघु में भी महत्तर का दर्शन कर सकती है। आचार्य विद्यासागरजी जन्मजात वर्चस्वी प्रतिभा के यशस्वी कलम-कलाधर साधक हैं। एक सन्त दार्शनिक की यह कविता 'मूकमाटी, माटी को मुखर बनाने का अनोखा अभियान है । मूक अधरों पर मन्त्रशक्ति प्रेरित करना सन्त के जीवन की सहज साधना है । सन्त के जीवन का यह अमृतफल है कि असम्भावना को नित्य सम्भावनाओं से वह भरपूर बना देता है । विषय तो निमित्त ही होता है उनकी रसवर्षिणी कलम के लिए। कविता का आरम्भ होता है जिस प्राकृतिक सुषमा से, वह मानव मुक्तिमार्ग का अद्भुत मंगलाचरण है :
"निशा का अवसान हो रहा है/उषा की अब शान हो रही है।” (पृ. १) इन दो पंक्तियों में जागरण का सन्देश है । एक ऐसा जागरण जो जन्मों की तन्द्रा-निद्रा से मुक्ति दिला पद, पथ और पाथेय के लिए प्रार्थनारत होते दिखाई देता है । छोटे-छोटे बेजान पात्रों के माध्यम से चलने वाले नाट्यमय संवाद इस कविता की शक्ति हैं। अपने आप को लघु और लघुतम मानना ही प्रभु को गुरुतम मान सकने की पहचान है । साधक कवि की प्रज्ञा-प्रतिभा को यह जो तलस्पर्शी शक्ति मिल पाई है, इसका रहस्य स्वयं उन्हीं के शब्दों में विचार और आचार का ऐक्य और साम्य है।
कुल चार खण्डों में विभाजित यह कविता यात्रा आरम्भ में ही एक प्रकार से अपने मूल हेतु की उद्भावना इन शब्दों में करती है :
"ऋषि-सन्तों का/सदुपदेश-सदादेश/हमें यही मिला कि/पापी से नहीं पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।/अयि आर्य !
नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य ।” (पृ. ५०-५१) प्रकट रूप से और प्रतिज्ञापूर्वक इस काव्य की पीठिका धर्म, दर्शन और अध्यात्म की त्रिवेणी पर आधृत है, फिर भी इस की चिन्ता मनुष्य के जीवन की तमाम सम्भावनाओं को छूती हुई दिखाई देती है। कवि की निरन्तर गतिशील चिन्तनधारा इस या उस रूप में सदैव मनुष्य के तमाम बन्धों-उपबन्धों को व्याख्यायित करती हुई दिखाई देती है। यही वज़ह है कि आरम्भ में धर्म के झण्डे को डण्डे में बदलते देख जहाँ कवि की प्रतिभा कारुणिक हो जाती है, शास्त्र को शस्त्र बन जाते देख चिन्तित हो जाती है, वहीं आतंकवाद की तथाकथित विजय पर नए प्रश्नचिह्न लगाते हुए भी दिखाई देती है। प्रश्न का समस्त विस्तार, तमाम दिशाएँ, सकल दिशाबोध, परखने की अचूक दृष्टि होने के कारण यह कविता मात्र