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326 :: मूकमाटी-मीमांसा
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'कु' यानी पृथिवी / 'मा' यानी लक्ष्मी / और
'री' यानी देनेवाली"/... कुमारी रहेगी ।” (पृ. २०४)
उक्त व्युत्पत्ति से 'कुमारी' शब्द का अर्थ हुआ आधार तथा ऐश्वर्य प्रदान करने वाली । यह नवीन व्युत्पत्ति है ।
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'स्' यानी सम-शील संयम / 'त्री' यानी तीन अर्थ हैं
धर्म, अर्थ काम- - पुरुषार्थों में / पुरुष को कुशल संयत बनाती है सो..'स्त्री' कहलाती है ।" (पृ. २०५ )
संयम तथा पुरुषार्थ प्रदान करने वाली 'स्त्री' हुई। इसी से त्री तथा तिरिया शब्द निकलते हैं । इनका अर्थ लज्जा है ।
"सुख-सुविधाओं का स्रोत "सो - / 'सुता' कहलाती है।” (पृ. २०५) " दो हित जिसमें निहित हों / वह 'दुहिता' कहलाती है।" (पृ. २०५ )
रचनाकार ने 'सुता' तथा 'दुहिता' शब्द की लीक से हटकर नई व्युत्पत्तियाँ की हैं। सूनु तथा सुता एवं अँग्रेजी का सन एक ही शब्द मूल 'सू-स' (पैदा होना, बोना) से व्युत्पन्न है । ये कृषि- - सभ्यता का स्मरण दिलाते हैं। 'नि' यानी निज में ही / 'यति' यानी यतन - स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है ।" (पृ. ३४९)
रचनाकार ने 'नियति' का अर्थ आत्मलीनता, आत्मकेन्द्रिता माना है । यह अभिनव व्युत्पत्ति है ।
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" श्रम करे " सो श्रमण !" (पृ. ३६२)
'श्रमण' की यह नई व्युत्पत्ति है । शर्मा, सर्मन (Sermon ) तथा श्रमण शब्दों में दो प्रातिपदिक माने जा सकते हैं : १. श्रम २. शम ।
" कला शब्द स्वयं कह रहा कि / 'क' यानी आत्मा - सुख है 'ला' यानी लाना - देता है ।" (पृ. ३९६)
यहाँ 'कला' का अर्थ आत्मानन्द माना है ।
" समूह यानी / सम - समीचीन ऊह - विचार है।" (पृ. ४६१)
उक्त व्युत्पत्ति भी अभिनव है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि रचनाकार का ज्ञान क्षेत्र, प्रकृति पर्यवेक्षण, विषय की प्रकृति के अनुसार शब्द-चयन तथा प्रतिपाद्य के अनुसार अभिनव अर्थों की सर्जना बहुआयामी रही है। रचनाकार को साहित्यकार के साथ-साथ तत्त्वान्वेषी, व्युत्पत्ति विज्ञानी तथा भाषाविद् भी माना जा सकता है।