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मूकमाटी-मीमांसा :: 329 सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड..!" (पृ. १११) साहित्य के सन्दर्भ में इस सुस्पष्ट उद्धरण को उद्धृत करने का साफ़ अर्थ यह है कि इस कविता को मात्र धार्मिक, आध्यात्मिक या दार्शनिक मानकर साहित्य के आंगन से दूर न रखा जाए। सुधी समीक्षक तथा सुविचारी पाठक इस उद्धरण के आधार पर जब मुनिवरजी के काव्य का रसास्वाद लेने के लिए कटिबद्ध होगा, तब उसे भी जीवन के रंगोंरसों से भरपूर यह कविता तन-मन-बुद्धि को अपार आह्लाद देनेवाली लगेगी।
मुनिवरजी ने संगीत की महत्ता भी स्वीकार की है। उनकी दृष्टि में तो सारा जीवन ही संगीत है । कवि संगातीत को संगीत मानते हैं और अंगातीत को प्रीति मानते हैं। उनकी दृष्टि में उनका संगी संगीत सप्त-स्वरों से अतीत है। यह कबीर की भाषा में 'बिन घन परत फुहार' है । यह संगीत-साधना का प्रमेय है।
रससिद्ध कवीश्वर मुनिवरजी ने कुम्भकार के घूमते पहिए को देख साधक जीवन का अपूर्व सूत्र उद्घाटित किया है :
“परिधि की ओर देखने से/चेतन का पतन होता है/और
परम-केन्द्र की ओर देखने से/चेतन का जतन होता है।" (पृ. १६२) यही वह सूत्र है । इसका स्पष्टीकरण देते हुए कवि कहते हैं :
“परिधि में भ्रमण होता है/जीवन यूँ ही गुज़र जाता है
केन्द्र में रमण होता है/जीवन सुखी नज़र आता है।" (पृ. १६२) नितान्त सहज भाव से साधक जीवन का एक चमकदार मोती हमारी हथेली में मन्द स्मित के साथ रखते हुए कहते हैं :
“और सुनो,/यह एक साधारण-सी बात है कि/चक्करदार पथ ही, आखिर गगन चूमता/अगम्य पर्वत-शिखर तक/पथिक को पहुंचाता है
बाधा-बिन बेशक !" (पृ. १६२) 'मूकमाटी' के साधक कवि स्पष्टत: अनेकान्तवाद - स्याद्वाद के प्रबल समर्थक हैं । 'ही' एकान्तवादी स्वरघोष है, 'भी' अनेकान्तवाद का प्रतीक है। 'ही' पश्चिमी सभ्यता का पक्षधर है जब कि 'भी' भारतीय संस्कृति का अमृतकुम्भ और भाग्यविधाता है । रावण को 'ही' का तथा राम को 'भी' का उपासक मानते हुए कवि-चेतना कहती है कि 'भी' के आसपास भीड़ बढ़ती-सी लगती है। जब तक 'भी' की श्वास अबाध रूप से चलती रहेगी, तभी तक लोक में लोकतन्त्र का नीड़ सुरक्षित रहेगा। 'भी' से ही सदाचार, सद्विचार तथा स्वतन्त्रता के सपने साकार हो उठते हैं और स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है। 'ही' दूसरे को हीनदृष्टि से देखता है , वस्तु की शक्ल-बाह्यरूप को ही पकड़ पाता है और 'भी' सब को समीचीन दृष्टि से देख वस्तु के भीतरी भाग को भी छू सकता है। यही समझाते हुए कवि प्रभु से प्रार्थना करते हैं :
“ 'ही' से हीन हो जगत् यह/अभी हो या कभी भी हो
'भी' से भेंट सभी की हो।” (पृ. १७३) दूसरे सर्ग का समापन तप के महत्त्व के साथ करते हुए कवि ने जीवन की रग-रग में रस के रक्त-सम रमने की