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________________ 318 :: मूकमाटी-मीमांसा जिस ध्वजा की छाँव में/सारी धरती जीवित है सानन्द सुखमय श्वास स्वीकारती हुई !/प्रकृति की आकृति में तुरन्त ही विकृति उदित हो आई/सुन कर अपनी कटु आलोचना और/लोहिता क्षुभिता हो आई/उसकी लोहमयी लोचना!" (पृ. १२३) सभी काव्य गुणों से सम्पन्न होते हुए भी 'मूकमाटी' महाकाव्य सर्वथा निर्दोष नहीं है। कुछ व्याकरण सम्बन्धी चिन्त्य प्रयोग हैं जो काव्य के गौरव को घटाने वाले हैं। प्रारम्भिक पंक्तियों के शब्द प्रयोग अनगढ़ और बेमेल-से प्रतीत होते हैं: “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,/और इधर'नीचे निरी नीरवता छाई,/निशा का अवसान हो रहा है। उषा की अब शान हो रही है।” (पृ. १) 'अवसान' के साथ तुक के लोभ में उषा के साथ 'शान' का प्रयोग अत्यन्त भ्रष्ट प्रयोग है, जिससे भाषा सौन्दर्य को आघात लगा है। इसी प्रकार पृष्ठ दो पर 'पराग' पुल्लिंग के साथ अपनी' सम्बन्धवाचक सर्वनाम का प्रयोग भी अशुद्ध है । यहाँ पर अपने पराग को' होना चाहिए। पराग का अन्यत्र प्रयोग भी स्त्रीलिंग में किया है । पृष्ठ तीन पर 'सरक' शब्द के साथ 'सरपट' शब्द का प्रयोग अनर्थकारी है। सरक' शब्द धीरे-धीरे चलने के अर्थ में आता है और 'सरपट' शब्द जल्दी-जल्दी दौड़ने का अर्थबोध देता है, किन्तु कवि ने लिखा है : "और इधर''सामने/सरिता... जो सरपट सरक रही है/अपार सागर की ओर ।" (पृ. ३) 'माटी' के लिए 'बेटे' का सम्बोधन भी चिन्त्य है । प्रासुक, श्वभ्र, गारव, डाँव, स्नपित, पारणा, अरुक, अपाय, अन्तराय, ईडा, परीत आदि ऐसे अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग काव्य के मन्तव्य को समझने में पाठकों को कठिनाई में डालने वाला प्रतीत होता है । सीताहरण के समय सीता से यह कहलाना भी अनेक पाठकों को आपत्तिजनक लग सकता है : “यदि मैं/इतनी रूपवती नहीं होती रावण का मन कलुषित नहीं होता।” (पृ. ४६८) उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कतिपय व्याकरण सम्बन्धी भूलों, विशृंखल कथा-सूत्रों, दार्शनिक रूक्षता, नई कविता की छन्दविहीनता आदि अनेक कारणों से 'मूकमाटी' 'कामायनी' एवं 'उर्वशी' सदृश महाकाव्यों की श्रेणी में गणना के योग्य महाकाव्य नहीं है, तथापि वह एक महान् (साम्प्रदायिक) दार्शनिक काव्य होते हुए भी मानवीय मूल्यों की गरिमा से ओतप्रोत है, शिक्षाप्रद है, पठनीय है, संग्रहणीय है एवं दार्शनिकता की दृष्टि से अद्वितीय भी है। हमारी अभिलाषा है कि हिन्दी संसार में इसका अच्छा स्वागत हो, इसकी चर्चा हो और इसका गम्भीर अध्ययन भी हो।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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