SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 317 माटी के कुम्भ में से पायस ने स्वर्णकलश को फटकारते हुए कहा : "तुम स्वर्ण हो/उबलते हो झट से,/माटी स्वर्ण नहीं है/पर स्वर्ण को उगलती अवश्य,/तुम माटी के उगाल हो ! ...हे स्वर्ण कलश!/...परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम, पूँजीवाद के अभेद्य/दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला ! हे स्वर्ण- कलश!/ एक बार तो मेरा कहना मानो,/कृतज्ञ बनो इस जीवन में, माँ माटी को अमाप मान दो/मात्र माँ, माँ, नाम लो अब!" (पृ. ३६४-३६६) खीर (पायस) की स्वर्णकलश के प्रति कही गईं उक्त पंक्तियाँ महाकाव्य के चतुर्थ खण्ड से सम्बन्धित हैं। इस खण्ड का उपशीर्षक है-'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख।' इसके सम्बन्ध में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के प्रस्तवन' का यह अंश बहुत ही महत्त्वपूर्ण है : “बात में से बात की उद्भावना का, तत्त्व-चिन्तन के ऊँचे छोरों को देखने- सुनने का, और लौकिक तथा पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों का एक विचित्र छवि-घर है यह चतुर्थ खण्ड । यहाँ पूजा-उपासना के उपकरण सजीव वार्तालाप में निमग्न हो जाते हैं। मानवीय भावनाएँ, गुण और अवगुण, इनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं।" इस खण्ड में कुम्भकार ने घट को रूपाकार दे दिया है । इसके पश्चात् उसे अवा में तपाने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसी बीच बबूल की लकड़ी अपनी जलनशीलता की व्यथा कहती है । अपक्व कुम्भ का अग्नि से निवेदन ही इस महाकाव्य का सारांश प्रस्तुत करता है : "मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है/स्व-पर दोषों को जलाना परम-धर्म माना है सन्तों ने।/दोष अजीव हैं,/नैमित्तिक हैं बाहर से आगत हैं कथंचित् /गुण जीवगत हैं,/गुण का स्वागत है। तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से,/इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से मुझ में जल -धारण करने की शक्ति है/ जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में/तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।" (पृ. २७७) 'मूकमाटी' का कथ्य- भावपक्ष अधिक समृद्ध है । इतना सब कहने के उपरान्त भी ऐसा लगता है कि कदाचित् अभी बहुत कुछ कहना शेष है और यहाँ तो कुछ भी नहीं कहा जा सका है। काव्य का कलापक्ष-अभिव्यक्ति शिल्प भी उच्च स्तर का है । सरस, सहज, प्रवाहपूर्ण भाषा ने दुरूह दार्शनिक भावों को जिस सौष्ठव-सम्पन्न शैली में व्यक्त किया है, वह स्तुत्य है, प्रशस्य है, अनुकरणीय है । आलंकारिक छटा के साथ भाषा की लक्षणा एवं व्यंजना शक्तियों का भरपूर प्रयोग काव्यगत शैली-पक्ष की सम्पन्नता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है । व्यंग्यार्थ के साथसाथ अर्थान्तरन्यास का शब्द-कौशल देखने योग्य है, साथ में मार्मिक उक्तियों का संयोजन कवि की विलक्षण काव्यप्रतिभा का परिचायक है : "वेतन वाले वतन की ओर/कम ध्यान दे पाते हैं और चेतन वाले तन की ओर/कब ध्यान दे पाते हैं ?/इसीलिए तो... राजा का मरण वह/रण में हुआ करता है/प्रजा का रक्षण करते हुए,/और महाराज का मरण वह/वन में हुआ करता है/ध्वजा का रक्षण करते हुए
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy