________________
316 :: मूकमाटी-मीमांसा
तृतीय खण्ड का शीर्षक है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' इस खण्ड में आचार्यश्री ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि तन, मन और वचन की निर्मलता से लोक कल्याणकारी कार्यों का सम्पादन ही पुण्य का अर्जन है। क्रोध, मान, माया एवं लोभ पाप के संचयन का कारण होते हैं । अतः इनसे विरत रहना ही श्रेयस्कर है । महाकाव्य के सूक्ष्म कथानक को अनेक स्थितियों के चित्रण से गति प्रदान की गई है। धरती की कीर्ति देखकर सागर को क्षोभ होना, वह क्षोभ बड़वानल के रूप में प्रकट होना, सागर द्वारा राहु-आह्वान, फलस्वरूप सूर्य ग्रहण, इन्द्र द्वारा मेघों पर वज्र प्रहार, उपल-वृष्टि आदि के प्रलयंकर दृश्यों के माध्यम से विभिन्न रसों का परिपाक हुआ है । अन्त में कथाकार इस निष्कर्ष पर पहुँचता है :
" निरन्तर साधना की यात्रा / भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर / बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए ।" (पृ. २६७)
इस खण्ड के एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग की ओर मैं पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा, जो धरती के महत्त्व को उजागर करने वाला है । स्वाति नक्षत्र के मेघ से मेघ - मुक्ता का अवतरण होता है । इस अवतरण का निमित्त कारण सीपी होती है और सीपी धरती का ही अंश है । अत: धरती के धैर्य के कारण ही वह जड़ तत्त्व जल को मुक्ताफल में परिवर्तित करने का धार्मिक एवं कल्याणकारी कर्म सम्पादित कर पाती है। यही दया धर्म है और इसे ही व्यावहारिक कार्य भी कहते हैं :
" जल को जड़त्व से मुक्त कर / मुक्ता - फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर / उत्तुंग - उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है । / यही दया - धर्म है यही जिया कर्म है ।" (पृ. १९३)
'मूकमाटी' के पृष्ठों पर अनेक मूल्यवान् सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। उनके सन्दर्भों, प्रयोगों एवं महत्त्व पर एक स्वतन्त्र निबन्ध की अपेक्षा है, तभी उनका सम्यक् विवरण प्रस्तुत हो सकता है । यहाँ पर कवि की उक्तियों पर यत्किंचित् प्रकाश डालना ही पर्याप्त होगा ।
आधुनिक भौतिकवादी दृष्टि पर चोट करने वाली कवि की एक रोचक उक्ति है :
'वसुधैव कुटुम्बकम्'/ इसका आधुनिकीकरण हुआ है
वसु यानी धन- द्रव्य / धा यानी धारण करना / आज
धन ही कुटुम्ब बन गया है / धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।" (पृ. ८२ )
66
सत्-युग एवं कलियुग की व्याख्या करता हुआ कवि कहता है कि सत् की खोज में लगी दृष्टि ही सत् - युग है। सत् को असत् मानने वाली दृष्टि स्वयं कलियुग है। कलियुग की दृष्टि व्यक्तिवादी है जबकि सत्-युग समष्टिवादी है । कलियुग का जीवन कान्तिमुक्त शव है, किन्तु सत्-युग का जीवन कान्तियुक्त शिव है। मछली को माटी समझा रही है:
'शव में आग लगाना होगा, / और / शिव में राग जगाना होगा ।” (पृ. ८४) 'कामना' के सम्बन्ध में कवि की उक्ति उसके प्रचलित अर्थ से नितान्त भिन्न अर्थ का बोध करा रही है :
"यही मेरी कामना है / कि / आगामी छोरहीन काल में बस इस घट में / काम ना रहे !" (पृ. ७७)