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मूकमाटी-मीमांसा :: 315
धर्म कहा है तथा धर्म का प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट कुरीतियों को निर्मूल करना माना है । उन्होंने वर्तमान युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ कर वीतराग श्रमण संस्कृति को जीवित रखने के महान् उद्देश्य को लेकर महाकाव्य 'मूकमाटी' की रचना की है, यथा :
" तन और मन को / तप की आग में / तपा-तपा कर / जला - जला कर राख करना होगा / यतना घोर करना होगा / तभी कहीं चेतन - आत्मा
खरा उतरेगा ।/ खरा शब्द भी स्वयं / विलोमरूप से कह रहा है - / राख बने बिना खरा-दर्शन कहाँ ? /राखखरा ।” (पृ. ५७ )
महाकाव्य का द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' उपशीर्षक से है । इसमें कवि ने यह बतलाने का प्रयास किया है कि 'शब्द' सार्थक अक्षरों का उच्चारण मात्र है । उसके सम्पूर्ण अर्थ को समझना 'बोध' है और इस बोध को अनुभूति में तथा आचरण में उतारना 'शोध' है । कवि कहता है :
"बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, ... शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे / ... बोध का फूल जब ढलता-बदलता, जिसमें / वह पक्व फल ही तो / शोध कहलाता है ।
बोध में आकुलता पलती है / शोध में निराकुलता फलती है,
फूल से नहीं, फल से/ तृप्ति का अनुभव होता है।” (पृ. १०६-१०७)
फल है 'शोध' यानी शब्दों के अर्थ-बोध को आचरण में उतारना । अनेक शब्दों के आन्तरिक अर्थ-बोध को स्पष्ट करना, साथ ही उन्हें दर्शन से सम्पृक्त करते चलना आचार्य श्री विद्यासागर की विलक्षण शब्द-साधना का परिणाम है। नारी, सुता, दुहिता, कुमारी, स्त्री, अबला, आदमी, कामना, नमन, धरती, किसलय, राही, संगीत, शृंगार, वीर, शान्त, कलशी, वैखरी, तीरथ आदि अनेक शब्दों की व्याख्या की गई है।
आचार्यश्री ने शान्त रस को 'रसराज' कहा है। रसों का परिचय देते समय रस शास्त्र की अवहेलना करते हुए उन्हें नवीन क्रम से प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है- वीर, हास्य, रौद्र, भयंकर, अद्भुत, शृंगार, बीभत्स, करुण, वात्सल्य और शान्त :
" करुणा - रस जीवन का प्राण है / घमघम समीर-धर्मी है । वात्सल्य - जीवन का त्राण है / धवलिम नीर-धर्मी है । / किन्तु, यह
द्वैत-जगत् की बात हुई,/ शान्त-रस जीवन का गान है / मधुरिम क्षीर-धर्मी है । ...शान्त - रस का क्या कहें, / संयम - रत धीमान को ही / 'ओम्' बना देता है । जहाँ तक शान्त रस की बात है / वह आत्मसात् करने की ही है / कम शब्दों में निषेध - मुख से कहूँ / सब रसों का अन्त होना ही - / शान्त-रस है ।"
(पृ. १५९ - १६०)
संगीत की नूतन व्याख्या भी द्रष्टव्य है :
"संगीत उसे मानता हूँ / जो संगातीत होता है / और
प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है
मेरा संगी संगीत है / सप्त-स्वरों से अतीत!” (पृ. १४४ - १४५)