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________________ 314:: मूकमाटी-मीमांसा पंक्तियाँ मुखर कर रही हैं : "यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. ४७८) मंगल-घट पर अंकित 'ही' और 'भी' बीजाक्षरों का दार्शनिक विवेचन पठनीय है : “ 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा,/तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! और,/'भी' का कहना है कि हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ !... ...'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता। रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर 'भी' बैठा था। यही कारण कि/राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी।" (पृ. १७२-१७३) जैन दर्शन वस्तुत: अनेकान्त दर्शन है। इसे स्याद्वाद कहते हैं। कथंचित् यह भी सही है, कथंचित् वह भी सत्य हो सकता है। सापेक्षिकता इस दर्शन का मूल है : "अगर सागर की ओर/दृष्टि जाती है,/गुरु-गारव -सा कल्प-काल वाला लगता है सागर;/अगर लहर की ओर/दृष्टि जाती है, अल्प-काल वाला लगता है सागर । एक ही वस्तु/अनेक भंगों में भंगायित है अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !/मेरा संगी संगीत है सप्त-भंगी रीत है।” (पृ. १४६) वास्तविक करुणा-दया के अभाव के कारण जैन संस्कृति पराभव को प्राप्त हुई। आज इसके उपदेशक स्वयं अपने पथ से भटक गए हैं। इस तथ्य की ओर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने बड़ा मार्मिक व्यंग्य किया है : "उस पावन पथ पर/दूब उग आई है खूब!/वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर/केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की/भीड़ के कारण ! आज पथ दिखाने वालों को/पथ दिख नहीं रहा है, माँ !" (पृ. १५१-१५२) महाकाव्य के प्रथम खण्ड का शीर्षक है 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ।' इस खण्ड का कथ्य है कि संकर दोष से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का साफल्य है । जैन दर्शन जन्म मात्र से किसी को ब्राह्मण अथवा शूद्र आदि नहीं मानता है । वह उसके कर्मानुसार वर्ण की मान्यता को व्याख्यायित करता है। यह दर्शन प्राचीन होते हुए भी वर्तमान सन्दर्भो के युगानुकूल है । माटी की शुद्धता के लिए उसके कंकर-पत्थरों को छान कर निकालना होता है। इसी संकर दोष से माटी को बचाना है और उसको कुम्भ के उपयुक्त बनाना ही उसका वर्ण-लाभ है। प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि साधना की कसौटी पर जीवात्मा को तपाकर आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से उसे परमात्मा की कोटि तक ऊपर उठाना ही गुरु शिल्पी कुम्भकार का कार्य है। आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपनी 'मानस तरंग' संज्ञक भूमिका में शुद्ध सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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