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हिन्दी का प्रथम सफल दार्शनिक महाकाव्य : 'मूकमाटी' :
डॉ. दुर्गा शंकर मिश्र
'मूकमाटी' जैनाचार्य श्री विद्यासागर द्वारा लिखित ४८८ पृष्ठों का एक दार्शनिक महाकाव्य है । १३ पृष्ठीय 'प्रस्तवन' में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन के श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने बड़ी विद्वत्ता के साथ महाकाव्य के कथानक, दर्शन, महाकाव्यत्व एवं शब्दार्थ चमत्कार पर सम्यक् प्रकाश डाला है। आचार्य विद्यासागर ने अपनी ४ पृष्ठ की 'मानस - तरंग' इस महाकाव्य के मर्म को उद्घाटित करके पाठकों का मार्गदर्शन किया है।
इस महाकाव्य का कोई परम्परागत पौराणिक अथवा लोक प्रसिद्ध कथानक नहीं है। काव्यशास्त्रीय लक्षणों अनुगमन भी इसमें नहीं मिलेगा, किन्तु अपने विशिष्ट रचना - कौशल तथा आधुनिक सन्दर्भों से सम्पृक्त दार्शनिक उक्तियों के कारण हिन्दी जगत् में यह एक नव्य प्रयोग के लिए समादृत होगा- ऐसा हमारा विश्वास है । महान् उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि से भी इस महाकाव्य की चर्चा लोकप्रिय होगी ।
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सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् एबर क्रॉम्बी ने अपने ग्रन्थ 'एपिक' में महाकाव्य के अवयव संघटनको महत्त्व देकर उसके आन्तरिक सौन्दर्य को महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने लिखा है : "जीवन के अत्यधिक विस्तृत रंगमंच पर अपने अथ तूलिका श्रम के द्वारा महाकाव्य ऐसे भव्य एवं उत्कृष्ट चित्रों को अंकित करता है, जिसके माध्यम से हम एक ऐसे लोक का दर्शन करने में समर्थ होते हैं, जहाँ पर सभी कुछ महत्त्वपूर्ण, भव्य एवं दर्शनीय होता है । "
भारतीय चिन्तकों में योगिराज श्री अरविन्द ने अपने ग्रन्थ 'फाउण्डेशन ऑफ इण्डियन कल्चर' में भारतीय एवं पाश्चात्य महाकाव्यों की तुलना करते हुए महाकाव्य के महत्त्व पर सम्यक् प्रकाश डाला है । उनके विचार से: "भारतीय महाकाव्य मानव-जीवन के आन्तरिक महत्त्व की अत्यन्त उत्कृष्ट एवं कलापूर्ण अभिव्यक्ति होता है । उसमें उच्च तथा उदात्त विचारों की मूर्तिमान् एवं स्पन्दनशील अभिव्यक्ति होती है। उसमें विकासपूर्ण नैतिक एवं सौन्दर्यनिष्ठ मानव हृदय एवं उच्चतम सामाजिक आर्दशों की विवृत्ति होती है । उसमें महान् संस्कृति का आत्मिक बिम्ब निबद्ध किया जाता है। इसी कारण भारतीय महाकाव्य सम्पूर्ण राष्ट्र के अन्तरंग जीवन का अंग बना हुआ है।
इस सन्दर्भ में आलोच्य ग्रन्थ के आवरण पृष्ठ पर अंकित प्रकाशकीय टिप्पणी द्रष्टव्य है : “आचार्य श्री विद्यासागरजी की काव्य-प्रतिभा का यह चमत्कार है कि माटी जैसी निरीह, पद दलित एवं व्यथित वस्तु को महाकाव्य
विषय बनाकर उसकी मूक वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट - छानकर, वर्ण संकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का वर्ण लाभ दिया है। फिर चाक पर चढ़ाकर आँवाँ में तपाकर, उसे ऐसी मंज़िल तक पहुँचाया है, जहाँ वह पूजा का मंगल-घट बनकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है । कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्ति-य - यात्रा का रूपक है यह महाकाव्य । "
माटी के प्रतीक को कविवर बच्चन ने अपने एक गीत में प्रयुक्त करके जीव को पुनर्जन्मों के चक्करों से मुक्ति प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की है :
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'इस चक्की पर खाते चक्कर / मेरा तन-मन जीवन जर्जर; कुम्भकार, मेरी मिट्टी को और न अब बरबाद करो ।”
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'माटी' के इस प्रतीक का प्रयोग परम्परागत अर्थों में सन्त कबीर आदि ने भी किया है, किन्तु आचार्य विद्यासागरजी ने ‘मूकमाटी' महाकाव्य में इस प्रतीक का उपयोग सर्वथा भिन्न एवं नवीन अर्थों में किया है। साधन द्वारा साधक के आत्म-साक्षात्कार करने एवं लोक-कल्याण के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया को