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मूकमाटी-मीमांसा :: 311 अलंकार, अप्रस्तुतों का ऐसा अनुपम एवं नवीन प्रयोग हुआ है कि विस्मय विमुग्ध होना पड़ता है । यह नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा का अनुपम उदाहरण है। आज के विघटन, मूल्य संकट, सन्त्रास की घड़ी में सर्वधर्म समन्वय की भावना का व्यापक प्रचार-प्रसार होना ही चाहिए। एक-एक व्यक्ति अपने 'स्व' को पहचान कर ऊर्ध्वमुख हो-ऐसा प्रयास यहाँ स्पष्टतः परिलक्षित है। ऐसे ही काव्य को देखकर आचार्य कह उठे होगे- “पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यते"-देखिए, देव काव्य, जो न कभी मरता है, न जीर्ण होता है । ऐसी कालजयी कृति के लिए कृती कवि को साधुवाद ।
हिन्दी वाङ्मय की एक अमूल्य निधि : 'मूकमाटी'
एस. एन. ठाकुर 'मूकमाटी' कवि आचार्य विद्यासागर की अनुपम एवं स्तुत्य कृति है। इसमें माटी की व्यथा-कथा का सजीव एवं मर्मस्पर्शी चित्रण है । इस कृति में पाप और पुण्य की रूपकात्मक व्याख्या बहुत ही सराहनीय है । कर्मबद्ध आत्मा किस मार्ग से मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकती है, इसकी सहज व्याख्या विभिन्न रूपकों द्वारा रूपायित है। इस असार संसार में जीव लोभ, तृष्णा एवं प्रलोभन के विवर्त में फँसकर निरन्तर गर्त अथवा पतनोन्मुख हो रहा है । वह धन-सम्पदा, वैभव, मान-मर्यादा ही जीवन का उच्चतम बिन्दु मानता है किन्तु इसका संचयन जीव को पथभ्रष्ट करता है और दुष्कर्म में आबद्ध करता है । दुष्कर्म ही पाप है और सुकर्म पुण्य ।
__अर्थ की आँखें परमार्थ को नहीं देखती, क्योंकि अज्ञानता का धुन्ध इतना अधिक आच्छादित हो जाता है कि जिससे सत्य निर्मूल एवं भ्रामक-सा प्रतीत होता है । सागर, मेघ, चन्द्र, बदली, राहु इत्यादि दुष्कर्मी एवं अज्ञानी के तथा धरती, कुम्भकार, कुम्भ, सूर्य एवं इन्द्र आदि सुकर्मी के रूपक हैं। इनके माध्यम से कवि ने आज की आधुनिकता तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक धुरियों पर करारा व्यंग्य कसा है । स्वार्थ में बद्ध मानव विभिन्न दुष्कर्मों में आसक्त है, इस तथ्य को कवि ने बड़ी बारीकी से सागर के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। मोह से प्रभावित 'स्व' जीवन में स्वार्थ, लोभ, ईर्ष्या और द्वेष की भावना को उकसाता है जबकि 'पर' पावन भावधारा में अवगाहन कराता है, जो सत्कर्म के पथ को प्रशस्त करता है। 'पर' ही परमार्थ है और परमार्थ का अनुसरण करना पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ ही मानव को कुसंस्कार के पंक से निकालकर सुसंस्कार की पावन धरा पर लाता है और उसमें सद्गुणों, सत्कर्मों एवं सत् भावों का अंकुर अंकुरित होता है जिससे मानव सत् मार्ग की ओर अथवा ईश्वरोन्मुख होता है । यही उपासना और साधना मानव को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है।
'मूकमाटी' में कथा का प्रवाह बड़ा ही रोचक एवं भावपूर्ण है । अलंकारों की छटा, शब्दों का सार्थक एवं अर्थग्राही प्रयोग एवं पात्रों का चुटीला और सजीव वार्तालाप अर्थ की गहरी परतों को उकेर देता है। यह महाकाव्य हिन्दी वाङ्मय की एक अमूल्य निधि है, जिसमें आध्यात्मिक सन्दर्भ में कर्म की सहज व्याख्या उपलब्ध होती है।