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________________ 310 :: मूकमाटी-मीमांसा "सारे ग'म यानी/सभी प्रकार के दुःख/प"ध यानी ! पद-स्वभाव और/नि यानी नहीं,/दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह ।” (पृ. ३०५) यह खण्ड जैन धर्म में वर्णित साधु को आहार दान की प्रक्रिया का सविस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है-भक्तों की भावना, आहार देने या न देने से उत्पन्न भाव, साधु की दृष्टि, धर्मोपदेश की सारवत्ता, आहार दान कराने वाले सेठ का कुछ-कुछ उदासीन भाव से लौटना (जिससे पता चलता है कि उसे गन्तव्य का बोध हो गया है) आदि । महाकाव्य की परिणति वहाँ होती है, जहाँ पाषाण फलक पर आसीन नीराग साधु की वन्दना के उपरान्त स्वयं आतंकवाद कहता है : "हे स्वामिन् !/समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है,/ यहाँ सुख है, पर वैषयिक और वह भी क्षणिक !/यह 'तो'अनुभूत हुआ हमें,/परन्तु/अक्षय सुख पर विश्वास हो नहीं रहा है;/हाँ हाँ !! यदि/अविनश्वर सुख पाने के बाद, आप स्वयं/उस सुख को हमें दिखा सको/या/उस विषय में अपना अनुभव बता सको/"तो/सम्भव है/हम भी आश्वस्त हो आप-जैसी साधना को/जीवन में अपना सकें,/अन्यथा मन की बात मन में ही रह जायेगी/इसलिए/'तुम्हारी भावना पूरी हो' ऐसे वचन दो हमें,/बड़ी कृपा होगी हम पर।" (पृ. ४८४-४८५) साधना वही सफल, जो जन-जन को बहाए, रमाए । साधक वही महान्, जिसके श्रीचरणों में क्या डाकू रत्नाकर, आतंकवादी, उग्रवादी, क्या वाल्मीकि, शान्तिप्रिय शीश नवाएँ । मूकमाटी का साधना की अनन्त प्रक्रिया से गुज़र कर मंगल घट बनना एवं गुरु के पादपद्म प्रक्षालन करना ही उसकी परिणति है। इस महाकाव्य में क्या नहीं है 'यन्न भारते, तन्न भारते' की तरह ? राग-विराग, लघु-महान्, उत्तम-अधम, अति-अथ का द्वन्द्व देखना हो या भोग से यात्रा करते कान्तारों में भटकते हुए योग तक पहुँचने की दशा का आख्यान हो या अहम्-इदम् का द्वन्द्व - महाकाव्य में हजारों साक्ष्य मिलेंगे। अनुभूत सत्य की व्यंजना मिलेगी। 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी' (कबीर) की प्रामाणिकता मिलेगी। एक मछली का कूपमण्डूकता की संकीर्ण परिधि से निकल भागने का द्वन्द्व, संकल्प एवं तदनुकूल निर्णय कि वह बालटी के जल के साथ ऊपर आ गई, परन्तु कवि की व्यवस्था कि उसे बिना किसी प्रकार की चोट पहुँचाए पानी के भीतर कर देना । अहिंसा की पग-पग पर दुहाई। सच पूछिए, तो आज का मानव अहिंसा मन्त्र भर को अपना ले, तो मानवता त्राण पा जाए । इसमें सर्वत्र सामाजिक दायित्व के प्रति सजगता, प्रतिबद्धता है : "...खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं/प्राय: अनुचित रूप से/सेवकों से सेवा लेते और/वेतन का वितरण भी अनुचित ही।" (पृ. ३८६-३८७) शब्दों की पर्तों को उघारते जाना, नई-नई अर्थच्छवियाँ प्राप्त कराना कवि के लिए एकदम सरल है । सहज है-'कुम्भकार' की व्याख्या, 'गदहा' की व्याख्या, 'दोगला' की व्याख्या- इसके जीवन्त उदाहरण हैं। बिम्ब, प्रतीक,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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