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मूकमाटी-मीमांसा :: 309
की साधना समष्टि के कल्याणार्थ न्यौछावर हो जाती है। वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे' (गुप्त)- का भाव चरितार्थ होने लगता है। समष्टि सुख से मुसकुराने लगती है। साधना का चरम लक्ष्य इससे भी विराट् है- जड़ को जड़ता से मुक्ति दिलाना, पतन के गर्त से निकाल कर उत्तुंग शिखर पर बैठाना :
"जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है।/यही दया-धर्म है
यही जिया कर्म है।" (पृ. १९३) वेद से अवेद, भेद से अभेद की यात्रा ही इस खण्ड का लक्ष्य है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए
अन्यथा, वह यात्रा नाम की है/यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७) चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भ के अवा में पकने, तपने, जलने की कथा इतनी प्राणवन्त एवं काव्यात्मक है कि मन मुग्ध हो जाता है। एक साधक जिस प्रकार अपने गुरु से प्रार्थना करे कि उसके दोषों को जलाना ही साधक को जिलाना है, फिर अपने दोष के कारण, भेद गिनाए, उसी प्रकार अपक्व कुम्भ कहता है अग्नि
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने। दोष अजीव हैं,/नैमित्तिक हैं,/बाहर से आगत हैं कथंचित्;/गुण जीवगत हैं, गुण का स्वागत है ।/तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से, इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से/मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है,/उसकी पूरी अभिव्यक्ति में
तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।" (पृ.२७७) कुम्भ का पूरी शक्ति लगाकर उदर में धूम को भरना कुम्भक प्राणायाम है। कितनी सरलता व सहजता से कवि ऐसे गम्भीर विषय पर विरमते गए हैं :
"फिर भी !/पूरी शक्ति लगाकर नाक से/पूरक आयाम के माध्यम ले उदर में धूम को पूर कर/कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया
जो ध्यान की सिद्धि में साधकतम है/नीरोग योग-तरु का मूल है।” (पृ. २७९) कुम्भ पक कर बाहर आया कि लगे हाथ सेठ का सेवक आ गया कुम्भ लेने । हाथ में लेकर उसने घड़े को सात बार बजाया, उसे जाँचने-परखने । सात बार में सात स्वर निकले- सा, रे, ग, म, प, ध, नि । उसका भाव यह है :