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302 :: मूकमाटी-मीमांसा
समर्पण-भाव-समेत/उसके सुखद चरणों में/प्रणिपात करना है तुम्हें, ...उसके उपाश्रम में/उसकी सेवा-शिल्प-कला पर अविचल-चितवन-/दृष्टि-पात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें !" (पृ. १६-१७) व्याकुल प्रतीक्षा के बाद माटी का साक्षात्कार शिल्पी से होता है और माटी को वह धन्य करता हुआ उसे विभिन्न रूपों में रूपायित करता है :
"वह एक कुशल शिल्पी है !/उसका शिल्प/कण-कण के रूप में
बिखरी माटी को/नाना रूप प्रदान करता है ।" (पृ. २७) यह शिल्पी असाधारण और अलौकिक है, क्योंकि लौकिक शिल्पी को तो सरकार को टैक्स देना पड़ता है। लगता है, यहाँ कवि मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज का इस ओर भी संकेत है कि सरकार को शिल्पी से 'टैक्स' नहीं लेना चाहिए। शिल्पी, जो अपने अप्रतिम कला-शिल्प से संस्कृति की रक्षा करते हुए समाज की सेवा मुक्तभाव से करता है, किन्तु उसे पुरस्कार के बजाय कर चुकाना पड़ता है :
"सरकार उससे/कर नहीं माँगती/क्योंकि/इस शिल्प के कारण चोरी के दोष से वह/सदा मुक्त रहता है।/अर्थ का अपव्यय तो/बहुत दूर अर्थ का व्यय भी/यह शिल्प करता नहीं,/बिना अर्थ/शिल्पी को यह अर्थवान् बना देता है;/युग के आदि से आज तक/इसने अपनी संस्कृति को/विकृत नहीं बनाया/बिना दाग है यह शिल्प
और कुशल है यह शिल्पी।" (पृ. २७-२८) निश्चय ही यह शिल्पी, जिसे युग के प्रारम्भ से ही 'कुम्भकार' की संज्ञा दी गई है, सामान्य नहीं है । पर अपने समाज के सामान्य शिल्पी या कुम्भकार की कला को भी उचित सम्मान मिलना ही चाहिए।
शिल्पी कुम्भकार माटी को तैयार करता है साधना के लिए तथा उसे मंगलमय रूप देने के लिए। कुदाली से माटी के माथे पर चोट की जाती है, खुदाई की जाती है, पर माटी रोती क्यों नहीं, क्रुद्ध क्यों नहीं होती? यह माटी तो आत्मशुद्धि की प्रक्रिया को समझती है, इसलिए उफ़ नहीं करती। साधारण मनुष्य तो चोट खाकर आग-बबूला हो उठता है, चीत्कार करता है, पर राजसत्ता उसकी आवाज़ को दबा देती है। कवि ने संकेत के रूप में इस भाव को दर्शाया है :
"माटी के मुख पर/क्रुधन की साज क्यों नहीं छाई ?
क्या यह/राजसत्ता का राज़ तो नहीं है ?"(पृ. ३०) कबीर की माटी चुप नहीं रहती, प्रतिकार करती है :
"माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहि ।
इक दिन ऐसा आयगा, मैं रौंदूंगी तोहि ॥" कबीर भी सन्त थे और मुनि श्री विद्यासागरजी भी सन्त हैं। कबीर भी कवि थे और विद्यासागरजी भी कवि हैं। कबीर दीन-दुखी के दर्द को समझते थे और विद्यासागरजी भी समझते हैं, अन्यथा माटी कुम्भकार से ऐसा क्यों कहती :