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मूकमाटी-मीमांसा :: 303
"अमीरों की नहीं/गरीबों की बात है;/कोठी की नहीं कुटिया की बात है/जो वर्षा-काल में/थोड़ी-सी वर्षा में/टप-टप करती है और/इस टपकाव से/धरती में छेद पड़ते हैं,/फिर "तो"/इस जीवन-भर रोना ही रोना हुआ है/दीन-हीन इन आँखों से/धाराप्रवाह
अश्रु-धारा बह/इन गालों पर पड़ी है।” (पृ. ३२-३३) मानवीय चेतना का एक अंश है करुणा। वेदना से उत्पन्न होती है करुणा, जो मन के विकारों को धोकर साफ़ कर देती है, निर्मल कर देती है। करुणा मन से मन को जोड़ती है, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करती है । मानव समाज के लिए करुणा शुभ है । वासना भी मन की उपज है और करुणा भी । पर दोनों में अन्तर है । कवि के शब्दों में :
0 "एक जीवन को बुरी तरह/जलाती है भयंकर है, अंगार है !
एक जीवन को पूरी तरह/जिलाती है"/शुभंकर है, शृंगार है।" (पृ. ३८) ० “वासना की जीवन-परिधि/अचेतन है"तन है
दया-करुणा निरवधि है/करुणा का केन्द्र वह
संवेदन-धर्मा'चेतन है/पीयूष का केतन है ।" (पृ. ३९) कवि-कर्म समय-सापेक्ष है । कवि विद्यासागरजी महान् सन्त हैं, चिन्तक हैं, दार्शनिक हैं और अध्यात्म ही उनका इष्ट है । पर वे समाज की स्थिति को नकार कैसे सकते हैं। सन्त यदि साहित्य में प्रवृत्त है तो समाज की उपेक्षा कैसे कर सकता है । यही कारण है कि 'मूकमाटी' की दर्शन प्रधान कविताओं में भी कुछ ऐसी पंक्तियाँ आ ही जाती हैं, जिनसे तत्कालीन समाज की स्थिति-विसंगति का परिचय मिल ही जाता है :
“अब तो/अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी 'दया-धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है ।/किन्तु,/कृपाण कृपालु नहीं हैं वे स्वयं कहते हैं/हम हैं कृपाण/हम में कृपा न ! कहाँ तक कहें अब !/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर/और/प्रभु-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है/प्रभु-पथ पर चलनेवालों को ।
समय की बलिहारी है !" (पृ. ७३) 'समय की बलिहारी' कितनी व्यंग्यात्मक, पर सटीक टिप्पणी है । निश्चय ही कवि की नज़र से अपना भारतीय समाज ओझल नहीं है । धर्म के उन्मादी कृपाण लेकर चल रहे हैं और रक्तपात कर रहे हैं। इतना ही नहीं, कवि आगे चलकर कहता है :
0 “क्या इस समय मानवता/पूर्णत: मरी है ?
क्या यहाँ पर दानवता/आ उभरी है..?" (पृ. ८१)
“ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इस व्यक्तित्व का दर्शनस्वाद - महसूस/इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब!