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________________ 300 :: मूकमाटी-मीमांसा अन्य सूक्तियाँ पृ. १३३, १३५, १४२, १५९, १७५, १८४, १८५, ३०२, ३०८ इत्यादि पर भी देखी जा सकती हैं । कवि की अन्य विशेषताएँ लोक व्युत्पत्ति, यमक अलंकार तथा अनुप्रासों के सजीव प्रयोग हैं। लोक व्युत्पत्ति में प्राय: वर्णों के विलोम प्रयोग से अर्थ की सृष्टि की गई है। कुछ उदाहरण देखें : D 0 यथा : " 'गद का अर्थ है रोग / हा का अर्थ है हारक मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ / बस, और कुछ वांछा नहीं/गद - हा गदहा !" (पृ. ४० ) "स्व की याद ही / स्व- दया है / विलोम रूप से भी यही अर्थ निकलता है/याद"दया"।” (पृ.३८ ) इसी तरह हीरा (पृ. ५७), राख (पृ. ५७), कुम्भकार (पृ. २८), रस्सी (पृ. ६२), आदमी (पृ. ६४), लाभ (पृ. ८७),कायरता (पृ. ९४), नमन (पृ. ९७), निर्मद (पृ. १०२), साहित्य (पृ. १११), संसार (पृ. १६१), नदी एवं नाली (पृ. १७८ एवं ४४८), रसना (पृ. १८१), नारी (पृ. २०२), अबला (पृ. २०३), महिला (पृ. २०२-२०३), दुहिता (पृ. २०५ - २०६), अंगना (पृ. २०७ ), धीरता एवं कायरता (पृ. २३३), समता (पृ. २८४), स्वप्न (पृ. २९५), बर्तन (पृ. ३३२), कला (पृ. ३९६), वैखरी / वैखली (पृ. ४०३), लोहा (पृ. ४१३) हैं । मुहावरों के, लोकोत्तियों के दर्जनों रुचिकर प्रयोग हुए हैं। इसी तरह 'धी' के विचित्र प्रयोग पृ. ८६, ४७४, ४७७ पर देखें तथा 'पर' के यमक प्रयोग पृ. १३१, ११५, ३७ आदि में बड़ी सजीवता से हुए हैं । कई स्थलों पर संख्याओं का गुणन प्रस्तुत किया गया है । पृ. १६६-१६७ में ९ संख्या इसी प्रकार है। 'ही' एवं 'भी' के व्याख्यायित प्रयोग पृ. १७२ - १७३ में हैं। 'ली' के प्रयोग पृ. २०० में, 'घन' के प्रयोग पृ. २२७ में, यथा एवं तथा के प्रयोग पृ. २४५ में तथता - वितथता के प्रयोग पृ. २८८ में, सरगम (धा, धिन्, धा... ) के प्रयोग पृ. ३०५-३०६ में, 'पायस ना' एवं 'पाय सना' के प्रयोग ३६४ में, श स ष के प्रयोग पृ. ३९८ पर अवलोकनीय हैं । कवि की भाषा में प्रवाह है, संस्कृत निष्ठता है, काव्यत्व है । किन्तु कुछ स्थलों में चिन्त्य प्रयोग रह गए हैं, अपनी पराग (पृ. २), तरला तारायें (पृ. २), मौन का भंग होता है (पृ. ६), रोटी करड़ी क्यों (पृ. ११), प्रतिकार की पारणा (पृ. १२), कलिलता आती है (पृ. १३), निराशता (पृ. २२), परत्र (पृ. ३६), यशा (पृ. ४५), यतना (पृ. ५७), कँप उठ है (पृ. २६९), वो (पृ. १२६), लिंग दोष (पृ. २८२) । निर्जीव वस्तु 'माटी' को काव्य कलेवर में, कथावृत्त में सुदृढ़ता से बाँधकर वीतरागी साधु ने सिद्ध कर दिया है कि कविता भावोद्रेक से बहती है, दया से उपजती है । कुल मिलाकर यह कृति उत्तम एवं पठनीय है। -
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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