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मूकमाटी-मीमांसा :: 299
'मूकमाटी' में चार खण्ड हैं-१. 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ', .१-८८; २. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, पृ. ८९-१८७ ; ३. 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन', पृ. १८९-२६७ ; ४. अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख, पृ. २६९-४८८। पहले खण्ड में मिट्टी के सहज स्वरूप, यानी कंकड़ रहित स्थिति को, पाने का वर्णन है।
"इस प्रसंग से/वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से
वरन्/चाल-चरण, ढंग से है ।" (पृ. ४७) ___ दूसरे खण्ड में माटी को रससिक्त करके नया स्वरूप दिया जाता है और यह है भाव बोध की एक नई स्थिति । शब्द यानी ध्वनि समूह को अर्थ के स्तर पर समझना 'बोध' है तथा उसे आचरण में उतारना 'शोध' है।
"बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है,
फूल से नहीं, फल से/ तृप्ति का अनुभव होता है ।" (पृ.१०७) तीसरे खण्ड में मनसा, वाचा, कर्मणा लोक कल्याण करना ही जीवन की सार्थकता है, ऐसा स्पष्ट किया गया
है
चौथे खण्ड में कुम्भकार ने घट को रूपाकार दिया है, अब उसे अवा में तपाकर शुद्ध करने का प्रयास है । इस खण्ड का फलक बहुत विस्तृत है तथा उसमें कई कथाप्रसंग गुथे हुए हैं। इसी खण्ड में साधु को आहार-दान देने का रोचक वर्णन है । जैन समाज में प्रचलित इस संस्कार का वर्णन काव्य एवं दर्शन दोनों ही दृष्टियों से उत्तम है।
ऊपर के वर्णन से स्पष्ट होता है कि मानवीकरण की दृष्टि से यह काव्य कृति छायावादी परम्परा में आती है। भाषा आधुनिक हिन्दी है और शैली में तत्समता का प्राचुर्य है। समासों का प्राचुर्य नहीं है । छन्दों में परम्परागत छन्द नहीं हैं बल्कि काव्यप्रवाह, लय से ओतप्रोत मुक्त छन्द है । बिम्बात्मकता इस काव्य कृति की प्रमुख विशेषता है । स्थानस्थान पर सुन्दर कल्पनाएँ हैं, चित्र हैं और तदनुरूप भाषा है।
"प्रभात आज का/काली रात्रि की पीठ पर/हलकी लाल स्याही से
कुछ लिखता-सा है, कि/यह अन्तिम रात है।" (पृ.१९) बीच-बीच में कुछ गीत भी गुथे हुए हैं।
इस कृति की एक विशेषता है सूक्तियों का विशाल भण्डार होना । जीवन, जगत्, सुख, दु:ख तथा अन्यान्य प्रकरणों पर सैकड़ों सूक्तियाँ स्थान-स्थान पर मिलेंगी, यथा :
“मन्द-मन्द/सुगन्ध पवन/बह रहा है;/बहना ही जीवन है ।" (पृ.२) “दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है दुःख भी सुख-सा लगता है।" (पृ. १८) _ "बायें हिरण/दायें जाय-/लंका जीत/राम घर आय ।" (पृ.२५)
"अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव !/अर्थ यह हुआ कि पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है।" (पृ.३३)