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मूकमाटी-मीमांसा :: 297
रूपक : ० "मंगलमय चरण-कमलों में/मस्तक धरते, करते नमन।" (पृ. २४२)
० "कुलाल-चक्र यह, वह सान है/जिस पर जीवन चढ़कर
अनुपम पहलुओं से निखर आता है।" (पृ. १६२) “'शरण, चरण हैं आपके,/तारण-तरण जहाज,
भव-दधि तट तक ले चलो/करुणाकर गुरुराज़'!" (पृ. ३२५) उत्प्रेक्षा: "ओलों को कुछ पीड़ा न हो,/यूँ विचार कर ही मानो
उन्हें मस्तक पर लेकर/उड़ रहे हैं भू-कण!" (पृ. २५१) प्रतीप: "पलाश की छवि को हरते/अविरति-भीरु अवतरित हुए
रजत के थाल पर/पात्र के युगल पाद-तल !" (पृ. ३२४) 'मूकमाटी' के शैल्पिक-वैशिष्ट्य पर दृष्टिपात करते ही हमारा ध्यान कवि-प्रयुक्त बिम्बों की ओर सहज ही चला जाता है । कवि ने वस्तुओं को ऐसे रूप से प्रस्तुत किया है कि उनका चाक्षुष प्रत्यक्षीकरण बड़ी सरलता से हो जाता है। कवि ने सहज, सरल, संश्लिष्ट, विवृत्त, अलंकृत, गत्यात्मक, व्यापारप्रधान बिम्बों का प्रयोग किया है । बिम्बविधान की दृष्टि से 'मूकमाटी' का अनुशंसन स्वतन्त्र लेख का विषय हो सकता है । यहाँ कुछ उदाहरण ही पर्याप्त होंगे:
० "विस्मित लोचन वाली/सस्मित अधरों वाली वह/इन लोचनों तक
कुछ मादकता, कुछ स्वादकता/सरपट सरकाती रहती हैं।" (पृ. १०१) "माटी की गहराई में/डूबते हैं शिल्पी के पद आजानु ! पुरुष की पुष्ट पिण्डरियों से/लिपटती हुई प्रकृति, माटी सुगन्ध की प्यासी बनी/चन्दन तरु-लिपटी नागिन-सी..!" (पृ. १३०) "आषाढ़ी घनी गरजती/भीतिदा मेघ घटाओं-सी कज्जल-काली धूम की गोलियाँ /अविकल उगलने लगा अवा।" (पृ. २७८) "प्राची की गोद से उछला/फिर/अस्ताचल की ओर ढला प्रकाश-पुंज प्रभाकर-सम/आगामी अन्धकार से भयभीत
घर की ओर जा रहा सेठ"।" (पृ. ३५१) निष्कर्ष यह है कि 'मूकमाटी' आचार्य कवि की जैन साधना का सुपरिणाम है । कवि ने मूक, निरीह, पददलित माटी की व्यथा-कथा को सहृदयता से सुन कर उसकी परिणति मंगल घट के रूप में की है। भाव पक्ष की अपेक्षा इसका कला पक्ष अधिक प्रौढ़ है। शब्दों को उदंकित कर उन्हें नई अर्थवत्ता प्रदान की गई है।
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पृ. ४१
“परसरोपयो जीवानाम्... जीवनचिरंजीवनाा संजीवन ।।।
- चिरंजीव