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292 :: मूकमाटी-मीमांसा
फटक, जल सिंचित कर, काँटे-कंकड़ के अपाय दूर कर उपयोगी और उपकारी कुम्भ में नहीं ढाल देता, वह कुम्भकार नहीं है । दूसरे शब्दों में कहें तो शब्दों की माटी को जो रचनाकार इस शक्ल में नहीं ला पाता, वह कविता का कुम्भकार नहीं, साहित्य का कुम्भकार नहीं और उसकी रचना कविता नहीं। 'मूकमाटी' काव्य में वास्तविकता यह है कि कवि
और दार्शनिक के बीच एक सतर्क संवाद चलता है। कभी कवि का स्वर ऊपर उठता है तो कभी दार्शनिक का स्वर 'हावी' हो जाता है । संवाद आरम्भ होते ही दोनों ही स्वर माटी और धरती के संवादों के साथ मुखरित हो उठते
___ भारतीय आचार्यों ने सानुबन्ध कथा को खण्ड और प्रबन्ध दो रूपों में देखा है। प्रबन्ध के लिए आद्यन्त कथाप्रवाह आवश्यक है। मम्मट, विश्वनाथ आदि ने सर्गबद्ध कथा, उच्चकुलोद्भव नायक, धर्मार्थ आदि पुरुषार्थ-चतुष्टय, विजय यात्रा, नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु वर्णन इत्यादि लौकिक विषय एवं वस्तुओं का वर्णन महाकाव्य के लिए अनिवार्य बताया है । पाश्चात्य विद्वानों ने उसमें प्रकथन की प्रधानता, सर्वत्र एक ही छन्द का प्रयोग, कथा में आरम्भ-मध्यअवसान का समानुपातिक प्रयोग, विभिन्न मानवीय स्थितियों का चित्रांकन महत्त्वपूर्ण माना है । मूकमाटी' में कथातन्तु अत्यन्त विरल, सूक्ष्म है । मोटे तौर पर यह काव्य चार खण्डों में विभक्त है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' व 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' इस प्रकार कुम्भकार द्वारा माटी का चयन, कुदाली से खोदना, मिट्टी आनयन, कंकड़ों को अलग करना, कूप से जल को निकाल कर मिट्टी फुलाना, पैरों से उसे रौंदना, चक्र पर चढ़ाकर मिट्टी को घट का आकार देना एवं घड़े के अन्दर सहारा देकर ठोक-पीटकर उसे विस्तार देना, उसमें अनेक मनोनुकूल चित्रों का अंकन, धूप में सुखाना, अवा के अन्दर अग्नि डालकर उसे मंगल घट में परिवर्तित करना आदि इसकी मुख्य आधिकारिक कथा है । प्रासंगिक घटनाओं के रूप में सरिता तट की माटी की व्यथा-कथा, आकाश से मुक्ता वर्षण, राजा द्वारा उसे प्राप्त करने का प्रयास तथा विफलता, स्वर्ण कलश एवं अनेक आतंकवादियों के प्रयत्न मुख्य हैं। इस प्रकार 'मूकमाटी' की कथा न तो ऐतिहासिक है और न प्रख्यात, यह तो तत्त्वान्वेषी जैन सन्त की उर्वर कल्पना एवं प्रौढ़ प्रतिभा का निदर्शन है। कथा का उद्देश्य मिट्टी से मंगल घट का निर्माण है, जिसमें पूरित अमृत-सम जल का संरक्षण, गुरु-पाद-पद्मों का प्रक्षालन मुख्य है । इस प्रकार एक सामान्य-सी कथा को बहुआयामी रूप में परिवर्तित करना तथा बहुजन हिताय, लोक हिताय या दीन-हीन वस्तु में श्रेष्ठ तत्त्वों की खोज एवं रूपान्तरण साधारण कवि के सामर्थ्य से परे है। निश्चित ही लघ में विराट. अण में महत का दर्शन स्थितप्रज्ञ योगीजन का ही कार्य है, जो यहाँ दिखाई देता है।
यहाँ यह निर्णय करना अति आवश्यक प्रतीत होता है कि आलोच्य 'मकमाटी' काव्य का काव्य रूप क्या है ? क्या यह मात्र प्रबन्ध काव्य है ? अथवा क्या इसे हम महाकाव्यात्मक गरिमा से अभिहित कर सकते हैं ? इस समस्या के मूल में यह बात प्रथम दृष्ट्या उठ खड़ी होती है कि मूल आधिकारिक घटना महाकाव्यात्मक गरिमा से शून्य है । घटना-व्यापार शिथिल तथा प्रवाहमयता विच्छिन्न है । यहाँ मूल अभिधेय अर्थ के साथ दूसरी कथा प्रवाहित नहीं प्रतीत हो रही है ? इसका उत्तर स्वीकारात्मक रूप में है कि मूल आधिकारिक कथा के समानान्तर उपमान कथा प्रवाहित है, जिसमें आर्हत् दर्शन के अनुसार जीव की पारलौकिक या आध्यात्मिक साधना यात्रा का सविस्तार वर्णन है। इस कथा में गुरु, शिष्य, माया, साधना मार्ग की स्वीकृति, संसार से दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति, दोषों का परिमार्जन, साधना की अग्नि में जीवात्मा का परिष्कार एवं आत्मा का सर्वथा नूतन रूप में आविर्भाव की घटनाएँ प्रमुख हैं। इस प्रकार यदि कुम्भकार के प्रयास की कथा उपमेय कथा है तो गुरु द्वारा शिष्य को आत्म साक्षात्कार कराने की कथा उपमान कथा है । अत: विद्वानों की दृष्टि में उपमेय की कथा के साथ उपमान कथा का संयोजन समासोक्ति काव्य है और अप्रस्तुत के