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________________ 'मूकमाटी' : अपनी ही शैली का एक नया महाकाव्य ___डॉ. वेद प्रकाश द्विवेदी जैन सन्त विद्यासागर की कविता रचना 'मूकमाटी' अपनी ही शैली का एक नया महाकाव्य है । महाकाव्य इसलिए नहीं कि यह विशालकाय है, महाकाव्य इस अर्थ में भी नहीं कि इसमें किसी इतिहास गाथा या पुराण गाथा के स्थान पर कुछ उपकथाएँ या कल्पना-कथाएँ जोड़ कर स्वयं को एक विशालकाय प्रबन्ध काव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया । सच तो यह है कि परम्परागत दृष्टि से समीक्षक लोग जिसे महाकाव्य कहते रहे हैं, वह तो यह है ही नहीं, क्योंकि प्रबन्ध कथा के अभाव में यहाँ सर्गों या पर्वो के विभाजन की कोई सम्भावना ही नहीं है। एक सुनिश्चित दार्शनिक अथवा आचार्य दृष्टि से अनुशासित गति होने से इसमें वर्ण्य-वस्तु की बहुत विविधता भी नहीं है। ऐसी स्थिति में ऋतु सौन्दर्य और रस योजनाएँ जैसी बातें तो कोई तुक ही नहीं रखती हैं। 'साकेत' अथवा 'कामायनी' की कोटि में भी 'मूकमाटी' को नहीं खपाया जा सकता । अन्तर बहुत स्पष्ट है। उन दोनों महाकाव्यों में अतीत कथाओं के आलोक में वर्तमान को भास्वरता देने का प्रयत्न है। 'मूकमाटी' में ऐसा कुछ भी नहीं है। इस काव्य की कथावस्तु-विधान की दृष्टि से कल्पनाप्रसूत है, अनुभव की दृष्टि से जीवन की धरती से उगी है, मूल्यों की दृष्टि से आर्हत् धर्म के मानवीय मूल्यों के सन्देशसूत्र पकड़ कर चलती है। कुल मिलाकर आदि से अन्त तक यह विकासमान कथावस्तु है । इसीलिए मैंने 'मूकमाटी' को अपनी शैली के एक अलग ही महाकाव्य के रूप में समझा है । इसकी महत्ता काय विस्तार में नहीं है, आत्म-विस्तार में है। अपायों से मुक्त चेतना के उदात्तीकरण में है। धर्म और आचार मूलत: मानव जीवन की परिष्कृति और संस्कार के लिए ही हैं। स्वभावत: जो भी काव्य रचना जीवन को केन्द्र में लेकर के चलेगी, उसमें जीवन का परिष्कार करने वाली, उसमें पशु-सामान्य धरातल से ऊपर उठाने वाली नैतिकतावादी दृष्टि अवश्य ही अनुस्यूत रहती है । कभी-कभी दार्शनिक और सन्त कोटि के कविजन निश्चयपूर्वक किसी विशेष आचार-संहिता को ध्यान में रखकर काव्य रचना करते हैं। ऐसी रचनाओं में कविता मुक्त और निर्बन्ध होकर नहीं चल पाती है । वह एक सुनिश्चित विचार-दृष्टि की संवाहक भर बनी रहती है। ऊपर जो कुछ कहा गया है, उसका उद्देश्य यह स्पष्ट कर देना है कि 'मूकमाटी' जैसे महाकाव्यों पर कोई समीक्षा, टिप्पणी करते समय न तो पुराने काव्यशास्त्रीय मापदण्ड ही लागू किए जाएँ और न ही एकतरफा ढंग से नई समीक्षा के कोई स्थिर सिद्धान्त ही परख के लिए पर्याप्त कहे जा सकते हैं। ऐसी काव्य-रचना की समीक्षा के लिए कवि की स्वयं की दृष्टि ही सर्वोपरि दिशा-संकेतक हो सकती है। ___ 'मूकमाटी' के कवि ने साहित्य शब्द को लेकर अपनी रचना में जो आप्त धारणा प्रस्तुत की है, वह एक कारगर सूत्र है जिसके सहारे 'मूकमाटी' का अच्छा मूल्यांकन किया जा सकता है । कवि की धारणा है : “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित-पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड'!" (पृ. १११) तात्पर्य यह है कि जो हित साधना नहीं करता, वह साहित्य नहीं है अर्थात् वह कविता नहीं है । जो माटी को छान
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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