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________________ 284 :: मूकमाटी-मीमांसा 'गदहा' शब्द को ले सकते हैं । इस शब्द के मूल तक कोई शास्त्रीय दृष्टिवाला व्यक्ति जाना चाहे तो उसे संस्कृत के 'गर्दभ' शब्द तक जाना पड़ेगा। इस शब्द की व्युत्पत्ति है- गर्द ( शब्द करना, दहाड़ना) + अभच् । 'गर्दभ' से ही विकसित हुआ है हिन्दी का शब्द 'गदहा' । किन्तु, 'मूकमाटी' कार 'गदहा' के संस्कृत मूल तक नहीं जाता । वह तो 'गदहा' शब्द को ही मूल मान कर चलता है। 'मूकमाटी' का कवि दूसरे मार्ग से जाकर संस्कृत शब्दों का आश्रय लेता और जो अर्थ वह प्रस्तुत करता है वह (शब्द) स्वतन्त्र विधि से निकाला हुआ होने पर भी पूरी तरह शास्त्र सम्मत लगता है । देखिए : "गद का अर्थ है रोग/हा का अर्थ है हारक / मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ 'बस, / और कुछ वांछा नहीं / गद- हा गदहा !" (पृ. ४०) माटी एक जगह उपदेश करती है और कवि ने राह, राही और हीरा शब्दों को एक दूसरे के साथ अपूर्व ढंग से निबद्ध कर दिया है संयम की राह पर चल कर : " राही बनना ही तो / हीरा बनना है, / स्वयं राही शब्द ही विलोम रूप से कह रहा है- / राही " हीरा"।” (पृ. ५७) इसी प्रकार 'खरा' शब्द मानो 'राख' के विलोम रूप से ही गढ़ा गया हो। कंवि ने 'खरा' शब्द को अपने विलोम रूप से कहते हुए बताया है : " राख बने बिना / खरा - दर्शन कहाँ ? रा’''ख'''ख''"रा ं"।” (पृ. ५७) I भारतीय समाज में युगों से प्रतिष्ठित उदात्त आदर्शों की आज कैसी-कैसी दुर्गति हुई है, कवि ने इसकी भी झलक दिखलाई है | हमारे समाज में यूँ तो ऊँची-ऊँची बातें बहुत की जाती हैं और इन बातों को ही कोई हमारे समाज को समझने का आधार बना ले तो निस्सन्देह हम प्रणम्य समझे जा सकते हैं । किन्तु, हमारी वास्तविक दशा क्या है - यह कवि की दृष्टि से ओझल नहीं । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का हमारा उच्चादर्श न जाने कब से चला आ रहा है । हम अपनी उदारता प्रमाणित करने के लिए न जाने कितनी बार इसी कथन का आश्रय लेते हैं, किन्तु कवि कहता है : 46 "वसुधैव कुटुम्बकम्" / इसका आधुनिकीकरण हुआ है / वसु यानी धन-द्रव्य धा यानी धारण करना/आज / धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ।” (पृ. ८२) आधुनिक जीवन में सारी व्याख्याएँ ही जैसे उलटी हो गई हैं। अब सच बात लोगों को नहीं सुहातीं । गाँवों में भी कहा जाता है- 'खर कै कहवइया दाढ़ीजार ।' खरी बात बोलने वाला भला किसे प्रिय लगता है ! और युगों की बात चाहे जो रही हो, कलियुग में तो ऐसा ही दिखता है। यहाँ तो 'सत् युग' भी वास्तविक सत् - युग से भिन्न हो गया है। जिसमें बुरा भी 'बूरा' '-सा ( साफ़ - शुद्ध की गई शर्करा ) लगता है। 'खरा' और 'अखरना' तथा 'बुरा' और 'बूरा' शब्दों का उपयोग देखिए : "यही / कलियुग की सही पहचान है / जिसे / खरा भी अखरा है सदा / और
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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