________________
'मूकमाटी' और शब्दविनोदी आचार्य श्री विद्यासागर
डॉ. महावीर प्रसाद उपाध्याय आचार्य श्री विद्यासागरजी की काव्यकृति 'मूकमाटी' को देखने से पूर्व ही-लिखी-सुनी बातों के आधार पर एक धुंधली-सी धारणा बनी थी कि यह एक उच्च दार्शनिक रचना होगी। ऐसा है भी। कृति एवं कृतिकार के प्रति आदर भाव लिए मैं 'मूकमाटी' पढ़ता रहा । इस पर कुछ लिखने का संकल्प था । स्वभावत: काव्य का जो पक्ष मन पर अधिक प्रभाव जमाता है, उसी पर लिखा जा सकता था । यों तो इस रचना में अनेक बातें हैं जो मन को आन्दोलित-प्रभावित करती हैं, किन्तु मैंने इसके शब्द-विनोद को ही अपना विषय बनाया है।
आप माटी की मुक्ति-यात्रा तथा उसके विभिन्न पड़ावों पर मुग्ध हो सकते हैं, महाकाव्योचित प्रकृति वर्णन का आनन्द ले सकते हैं या आचार्य श्री विद्यासागर की गुरु गम्भीर दार्शनिक अनुभूतियों से कृतार्थ हो सकते हैं, किन्तु शब्दों के साथ रचनाकार की विनोद वृत्ति मुझे बहुत रुचिकर लगी है।
'मूकमाटी' में ऐसे बहुत से शब्द हैं, जिन्हें आधार बनाकर कवि ने ऊँची-ऊँची बातें कह दी हैं। कहीं शब्दों की व्युत्पत्ति को नए ढंग से समझाया गया है और कहीं उसके विलोम रूप में चमत्कारी अर्थ की खोज की गई है। आचार्य श्री विद्यासागरजी की शब्द-व्युत्पत्ति चाहे व्याकरण-सम्मत हो और चाहे कल्पना-सम्मत, होती नितान्त आह्लादक है। सर्वत्र शब्दों के प्रति कवि का शास्त्रीय एवं बँधा-बँधाया आग्रह होता तो इसे शब्द-विनोद नहीं कहा जा सकता था। सुखद है कि गम्भीर विषयान्तर्गत कवि ने क्रीड़ा-वृत्ति अपनाई और पाठकों का न केवल स्वस्थ मनोरंजन कराया अपितु शब्दों की सुरुचिपूर्ण विवेचना के मध्य उच्च सन्देश भी निहित दिखलाया।
'मूकमाटी' एक विशालकाय ग्रन्थ है। इसे महाकाव्य माना गया है । इसके विस्तृत कलेवर में कवि के शब्दविनोद के इतने स्थल हैं कि सब की विस्तार सहित चर्चा दुस्साध्य तो नहीं है, किन्तु यहाँ प्रयोजन भी कुछ वैसा नहीं। 'मूकमाटी' एक शोधापेक्षी काव्यकृति है और इस पर जब भी कोई शोधकार्य होगा, इसके शब्द-लालित्य पर शोधकर्ता की दृष्टि अवश्य जाएगी। यहाँ तो मैं कृति के कुछ प्रसंगों को ही लेना चाह रहा हूँ। उतने ही प्रसंगों को, जितने से कवि की कल्पनाशक्ति अर्थारोपण की क्षमता और शब्द-क्रीड़ा-कौशल की किंचित् झलक दिखलाई जा सके।
कवि की विनोद वृत्ति प्रसंग या विषय सापेक्ष नहीं है । वह कहीं भी दिख सकती है - किसी भी प्रसंग या विषय वर्णन में । इसीलिए मैंने भी किसी प्रकार के वर्गीकरण की चेष्टा नहीं की। काव्य के आद्यन्त क्रम में कुछ ऐसे मनोरम स्थल हैं, जहाँ हम कवि की अर्थसूझ एवं तदनुरूप शब्द व्याख्या देख सकते हैं। एक बात जो और भी ध्यान में रखकर चलने योग्य है वह यह कि शब्दों की मौलिक व्युत्पत्ति प्रस्तुत करना, एक शब्द के ध्वनिसाम्य में कतिपय अन्य शब्दों का प्रयोग करना या फिर शब्दों के विलोम रूप का उपस्थितीकरण यूँ ही निरुद्देश्य नहीं होता। ऐसे आयासों में सर्वत्र कोई न कोई उपयोगी या चमत्कारी विचार अवश्य निहित रहता है । इसी प्रकाश में हम 'मूकमाटी' के कुछ स्थल देखेंगे।
'पर' को दयादृष्टि से देखने पर 'स्व' का बोध होता या कहें उसकी याद भी आती है और 'स्व' की याद अपने पर दया भी है। इस प्रकार 'पर' पर दया करनेवाला प्राणी 'स्व'- बोध भी करता है और प्रकारान्तर से 'स्व' पर दया भी। इसी बात को अपनी मौलिक शैली में समझाता हुआ कवि कहता है :
"स्व की याद ही/स्व-दया है/विलोम-रूप से भी
यही अर्थ निकलता है/याद"द"या"।" (पृ. ३८ ) किसी शब्द की स्वतन्त्र व्युत्पत्ति समझाने में आचार्य श्री विद्यासागरजी पूर्ण पारंगत हैं। उदाहरणार्थ हम