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________________ 282 :: मूकमाटी-मीमांसा और रसभरी जलेबी की तरह यह सभी तरफ से स्वादिष्ट रचना है, इस जैसी अन्य रचना मेरी दृष्टि में नहीं आई। विश्व के बेजोड़ अध्यात्म रसपूर्ण सरस साहित्यिक शब्दशिल्प की अद्भुत कृति है यह । 'साहित्य' – सत् और हित रूप ही होना चाहिए, यह बात गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 'विश्वभारती' में 'गीतांजली' पर नोबल पुरस्कार प्राप्ति के बाद एक भाषण में श्रोताओं को समझाई थी, जिसे 'मूकमाटी' के रचनाकार ने सहज-सरलरूप में सभी प्रकार के पाठकों को हृदयंगम करा दिया है। पढ़ते-पढ़ते शरीर ताज़ा, मन शान्त, बुद्धि तर्क छोड़ती और आत्मविभोर हो धन्य-धन्य कह उठती है। पहली बार गोपियों के भाव' सूरदास की शैली में "उद्धव ! जिन अँखियाँ तुम श्याम निहारत, ते अँखियाँ हम लागी, उद्धव हम अति भए बड़-भागी!" विश्वविख्यात विचारक कृष्णमूर्ति ने कहा है कि “शब्द से उसका अर्थ छीन लें और फिर देखिए, सारी सृष्टि ही व्यर्थ हो जाएगी।" यहाँ बात यह कही गई है कि शब्दों के विविध अर्थी आयामों पर विचार कीजिए और सभी प्रकार के विवादों से बचकर सुख-शान्तिमय जीवन व्यतीत कीजिए। उसी प्रकार जिन पुण्यशाली भाग्यवान् श्रावकों-गृहस्थों ने आचार्यश्री के प्रवचनों से आत्मस्वरूप की परिचित्ति या शान्ति लाभ लिया हो, वे वचन काव्यामृत कामधेनु के सुस्वादु पुष्ट पथ्य रूप में मेरे चर्म चक्षुओं ने देख, आत्मरस का आस्वादन लेना चाहा और प्रगटाया कि यह जीवन ही कल्पवृक्ष है। कल्पना करो कि इस जीवन वृक्ष में चिन्ताओं के नहीं, चित्त-शान्ति के मणि-माणिक लगें और यह नश्वर जीवन 'चिन्तामणि' (चिन्ता नामक मणि) बनकर विश्वजन की चिन्ताओं का हरण कर सके । इसके शब्द-शब्द मोती हैं, अक्षरों में भास्वर-भास्कर रश्मितुल्य मणियाँ, वाक्यों की मोहक लड़ियाँ, सर्गों के ऐसे सोपान हैं जो क्रमश : चारों धर्म - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-के सिद्धि प्रदाता हैं। और इसका निर्माता अनन्त आत्म-'विद्या' का सचमुच 'मीठा महासागर है, जिसने सारस्वत साधना के इस स्वर्णकलश में वे अनन्त अनमोल रत्नराशियाँ दी हैं, जो सभी देशों, सभी कालों के सभी प्राणियों को अपने जीवन की सार्थकता सम्पन्न कराते हुए मानव को नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा तथा पुरुष से पुरुषोत्तम का दिव्य सन्देश देता है। पृष्ठ ५८ इसीकार्य हेतु- ... सुलझाते-सुलझाने
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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