________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 285 सत् - युग तू उसे मान / बुरा भी / 'बूरा' - सा लगा है सदा ।" (पृ. ८२-८३)
श्रीमद् भगवद्गीता में समत्व बुद्धि की बात विस्तार से समझाई गई है । मानवीय जीवन में की जाने वाली साधना का चरम रूप वहाँ समत्व बुद्धि में ही दर्शाया गया है, किन्तु वहाँ यह बोध एक दार्शनिक गम्भीरता के साथ किया-कराया जाता है । शब्द - क्रीड़ा करते हुए इसी ऊँची बात को समझा देना तो 'मूकमाटी' कार आचार्य श्री विद्यासागरजी में दिखलाई पड़ती है। सीधे-सीधे शब्दों से बात समझ में न आए तो शब्दों के विलोम रूप की ओर ध्यान दिलाने में पारंगत आचार्य श्री कहते हैं :
"सुख या दुःख के लाभ में भी / भला छुपा हुआ रहता है, देखने से दिखता है समता की आँखों से, / लाभ शब्द ही स्वयं
विलोम रूप से कह रहा है - / लाभ भला।” (पृ. ८७)
मान या अभिमान मन में ही होता है । यह क्षुद्रजनों की पहचान है। जो साधुपुरुष है वह इस अभिमानी मन को अस्तित्वविहीन कर देना चाहता है। मन तो मानो सदा यही कहता है- नमन ! नम न !! नम न !!! इसकी पृष्ठभूमि कवि कहता है
:
" मन की छाँव में ही / मान पनपता है / मन का माथा नमता नहीं न - 'मन' हो, तब कहीं / नमन हो 'समण' को । ” (पृ. ९७ )
समान ध्वनियों का अनेकशः प्रयोग यों तो शब्द - विनोद की छटा मात्र बिखेरता लगता है, किन्तु 'मूकमाटी' कार ने ऐसे प्रयोगों के माध्यम से नीतिगत अर्थों का भी प्रस्फुटन दिखलाया है। ऐसे शब्दों एवं ध्वनियों को उपस्थित करने के साथ-साथ किस तरह नीति की बातें कह दी गई हैं, इसका एक उदाहरण देखें :
'जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं/ उन पर क्या, उनकी तस्वीर पर भी अबीर छिटकाया नहीं जाता !" (पृ. १३२)
कवि ने 'ही' और 'भी' शब्दों की पर्याप्त दार्शनिक व्याख्या की है। ये दोनों शब्द 'मूकमाटी' के प्रमुख पात्र
कुम्भ के मुख पर अंकित हैं। इन्हें कवि ने 'बीजाक्षर' कहा है। इन शब्दों के अपने-अपने दर्शन हैं :
'ही' एकान्तवाद का समर्थक है
'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।" (पृ. १७२ )
'ही' किस प्रकार ऐकान्तिकता में सिमट कर रहता है, इसे कवि ने प्रयोगपूर्वक दर्शाया है :
""
“हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ।” (पृ. १७२)
यहीं हम 'भी' को देखें तो इसमें अनेक की स्थिति एवं अस्तित्व की स्वीकृति है । तुच्छ स्वार्थ से परे जाकर परार्थ को भी यह 'भी' शब्द स्वीकारता है । 'ही' जहाँ औरों को हीनदृष्टि से देखता या उन्हें अस्वीकार ही देता है, वहीं 'भी' औरों को न केवल महत्त्व देता है, उनके अस्तित्व को स्वीकारता है अपितु उसकी दृष्टि भी समीचीन होती है । कवि ने 'ही' को पाश्चात्य तथा 'भी' को भारतीय संस्कृति का प्रतीक बतलाया है। एक रावणत्व की सूचना देता है, दूसरा रामत्व की । इसीलिए एक निन्द्य है और दूसरा वन्द्य ।