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मूकमाटी-मीमांसा :: 271
वर्ण-विपर्यय द्वारा शब्दों में अर्थ - चमत्कार उत्पन्न करने में आचार्यजी को सम्भवत: अद्वितीयता प्राप्त है। ऐसे भूयशः स्थल समुद्धरणीय हैं, किन्तु कुछ उदाहरणों से ही तोष धारण करने का विनम्र प्रयास है :
बुद्धि नहीं थी हिताहित परखने की, / यही कारण है कि वसन्त-सम जीवन पर/सन्तों का नाडसर पड़ता है।” (पृ. १८०-१८१)
शब्दों के विभिन्न वर्णों की व्याख्या द्वारा शब्द के मर्मार्थ की पहचान कराने में भी आचार्यजी का जोड़ नहीं
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काव्य में बिम्ब द्वारा भावचित्र खड़ा करने की प्रक्रिया जटिल तो होती है किन्तु बिम्ब द्वारा पाठकों तक साशय पहुँचने में कवि को सहूलियत होती है। इसलिए प्राय: अधिकांश काव्यकृतियों में बिम्ब का आविर्भाव है । 'मूकमाटी' में भी आचार्यजी ने अति सार्थक बिम्बों का निर्माण कर भाव को सुस्पष्ट और बोधगम्य बनाने में महारथ हासिल किया - प्रतिबिम्ब का चित्र देखें :
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उलटी-पलटी,
" मुख से बाहर निकली है रसना / थोड़ीकुछ कह रही -सी लगती है - / भौतिक जीवन में रस ना ! / और
र ं‘स ं ंना, ना ं ं ंसर / यानी वसन्त के पास सर नहीं था
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"सृ धातु गति के अर्थ में आती है, / सं यानी समीचीन / सार यानी सरकना" जो सम्यक् सरकता है/ वह संसार कहलाता है।” (पृ. १६१ )
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सूक्ति, मुहावरा, कहावत, लोकोक्ति, लौकिक न्याय आदि ऐसे शैली - घटक हैं जो भावों को उछालकर लोक में विकीर्ण कर देते हैं। लोक उन्हें अपनी ही वस्तु समझ कर लोक लेता है। इसलिए कवियों की भावाभिव्यक्ति के ये अमोघ अस्त्र बन गए हैं। आचार्यजी ने इन अमोघास्त्रों द्वारा भाव- प्रकाशन के लक्ष्य का सुभेदन जिस कौशल से किया है उसकी कुछ बानगियाँ द्रष्टव्य हैं :
"माँ के विरह से पीड़ित / रह-रह कर / सिसकते शिशु की तरह
दीर्घ श्वास लेता हुआ / घर की ओर जा रहा सेठ ं ं।” (पृ. ३५०-३५१) " प्राची की गोद से उछला / फिर / अस्ताचल की ओर ढला प्रकाश-पुंज प्रभाकर - सम / आगामी अन्धकार से भयभीत घर की ओर जा रहा सेठ ।” (पृ. ३५१ )
" कथनी और करनी में बहुत अन्तर है, / जो कहता है वह करता नहीं और/जो करता है वह कहता नहीं ।" (पृ. २२५-२२६)
"अपनी दाल नहीं गलती, लख कर / अपनी चाल नहीं चलती, परख कर हास्य ने अपनी करवट बदल ली।” (पृ. १३४)
" और सुनो ! / यह सूक्ति सुनी नहीं क्या !
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'आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का' ।” (पृ. १३५)