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270 :: मूकमाटी-मीमांसा
"लोक में लोकतन्त्र का नोड/तब तक सुरक्षित रहेगा जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा।/'भी' से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं,/सद्विचार सदाचार के बीज
'भी' में हैं, 'ही' में नहीं।" (पृ. १७३) धर्म का उद्देश्य लौकिक व्यवस्था को संयमित और सुदृढ़ करना होता है और आदर्श धर्म भी लौकिक व्यवस्था या मानदण्ड का विसंवादी नहीं होता। 'मूकमाटी' से ऐसी कुछ बानगियाँ उद्धृत हैं :
"शिष्टों पर अनुग्रह करना/सहज-प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करना है, धर्म है।/और,/दुष्टों का निग्रह नहीं करना
शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म है।" (पृ. २७६-२७७) आचार-धर्म-दर्शन को संकेन्द्रित और समर्पित इस महाकाव्य की भाषा-शैली की मनोहरता, विदग्धता, सहजता और स्वाभाविकता विचक्षण है । दर्शन और धर्म के गूढार्थान्वित सिद्धान्त कोमलकान्त पदावली में निबद्ध हैं। वर्चस्व-स्थापन के लिए भाव और भाषा का पारस्परिक संघर्ष अन्ततः अनिर्णायक ही रह जाता है। दोनों को अपनी विजय पर गर्व है।
___ गूढ सिद्धान्तों को सरल शब्दों में अभिव्यक्त करना काव्य की सर्वोच्च सफलता मानी जाती है । इस प्रयास में आचार्यजी अतुलनीय हैं । दो-एक उदाहरण देखें :
"पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है ।/और
अन्यत्र रमना ही, भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) मोह और मोक्ष जैसे तत्त्व की व्याख्या का प्रसंग देखें :
"अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर
अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०) भाव, भाषा और अभिव्यक्ति कला (शैली) का गुणनफल ही कवि कर्म की सफलता का निकष है। इस दृष्टि से आचार्यजी अप्रतिम सिद्ध होते हैं। भाव को सहज शैली और अति बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत कर इन्होंने काव्यशैली को एक अभिनव दिशा प्रदान की है। शब्दों के चयन में इनका भावुक हृदय सहजोन्मुख और लोकोन्मुख है । तत्सम शब्दों को भी लोक की झोली में डालकर इस प्रकार हिलाते हैं कि सबकी हत्तन्त्री निनादित हो उठती है । एक उदाहरण अलम् होगा :
"रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति/कभी भी किसी भी वस्तु के सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता,/भात में दूध मिलाने पर निरा-निरा दूध और भात का नहीं,/मिश्रित स्वाद ही आता है, फिर, मिश्री मिलाने पर "तो-/तीनों का सही स्वाद लुट जाता है !" (पृ.२८१)