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मूकमाटी-मीमांसा :: 265
होता है तथा काँटा प्रतिशोध लेने की तैयारी प्रारम्भ कर देता है। पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' नामक तृतीय खण्ड में कुम्भकार द्वारा माटी की विकास-कथा के माध्यम से पुण्यकर्म के सम्पादन से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि का चित्रण किया गया है । इस क्रम में ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न तत्त्वांशों का विवेचन भी प्रस्तुत है । चतुर्थ खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कुम्भकार ने मिट्टी से घट बनाने की अपनी कल्पना को साकार कर दिया है । इस बृहत्काय खण्ड में तत्त्व-चिन्तन की गम्भीरता और लौकिक तथा अलौकिक जिज्ञासा एवं शोध के तर्क सम्मत उत्तर समुपलब्ध हैं।
चार खण्डों में विभक्त इस महाकाव्य की कथा इस प्रकार है- मूक मिट्टी से मंगल घट बनाने की कल्पना कुम्भकार करता है। सर्वप्रथम इससे कंकड़, तृणादि जैसे विजातीय पदार्थों को अलग कर मिट्टी को पूर्ण विशुद्ध बनाने का उपक्रम करता है । वह वर्ण संकरता मिटाकर उसे मौलिक वर्णलाभ की स्थिति में पहुँचाना चाहता है । माटी खोदने की प्रक्रिया में उसकी कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है। सिर फट जाने के कारण काँटा कुपित हो प्रतिशोध लेने की बात सोचने लगता है और कुम्भकार को अपनी असतर्कता पर क्षोभ और ग्लानि होती है । वह माटी में जल मिलाकर उसे मार्दव बनाता है तथा माटी को रौंद-रौंदकर इस योग्य बना देता है कि घट का निर्माण सम्भव हो सके । घट का निर्माण कर वह उस पर सिंह और श्वान आदि की चित्रकारी करता है । घट को पकाने की योजना बनती है । अवा तैयार होता है। किन्त वर्षा होने लगती है। वर्षा के प्रतिघात से येन-केन-प्रकारेण घट को बचा लेता है और मंगल घट तैयार हो जाता है । अवा में तपाने की प्रक्रिया के बीच बबूल की लकड़ी अपनी मनोव्यथा कहती है । पके कुम्भ को कुम्भकार श्रद्धालु नगर सेठ के सेवक को सौंप देता है ताकि इसमें भरे जल से सेठ आहार के लिए पधारे गुरु का पाद-प्रक्षालन कर सके तथा उनकी तृषा तृप्त हो । मिट्टी के कुम्भ का सम्मान देखकर स्वर्णकलश को चिन्ता होती है । कथानायक ने उसकी उपेक्षा करके मिट्टी के घट को आदर क्यों दिया है ? इस प्रतिशोध भाव से उद्दीप्त और उद्विग्न स्वर्णकलश एक आतंकवादी दल का गठन करता है जो सक्रिय होकर सर्वत्र त्राहि-त्राहि मचा देता है । सेठ किसी प्रकार परिवार की रक्षा प्राकृतिक शक्तियों तथा मनुष्येतर प्राणियों की सहायता से करता है । पुन: सेठ आतंकवादियों को क्षमा कर देता है । सेठ के क्षमाभाव से आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन हो जाता है।
प्राज्ञपुरुष आचार्यजी के अनुसार 'मूकमाटी' में शुद्ध चेतना की उपासना है, जिसका उद्देश्य सुसुप्त उस चैतन्य शक्ति को जागृत करना है : “जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है। ...जिसने शुद्ध-सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है" (मानस तरंग, पृ. XXIV)। आचार्यजी की उल्लिखित प्रतिश्रुति के परिप्रेक्ष्य में 'मूकमाटी' के आलोचन-विवेचन का प्रयास किया जा रहा है।
पुण्य और पाप ये धर्म-अधर्म के आधार और उपादान हैं। मन, वचन और शरीर की निर्मलता, स्वच्छ कार्यों के निष्पादन, लोक मंगल की कामना आदि से पुण्य का अर्जन होता है और क्रोध, लोभ, माया एवं मान आदि पाप की कारणता हैं । स्वामीजी ने इसे सुस्पष्ट करते हुए लिखा है :
“यह बात निराली है, कि/मौलिक मुक्ताओं का निधान सागर भी है कारण कि/मुक्ता का उपादान जल है, यानी-जल ही मुक्ता का रूप धारण करता है/तथापि विचार करें तो/विदित होता है कि इस कार्य में धरती का ही प्रमुख हाथ है।