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264 :: मूकमाटी-मीमांसा
(एम. डिक्सन--इंगलिश एपिक एण्ड हिरोयिक पोयट्री, पृ. २४)
__प्राचीन साहित्यशास्त्रियों के मतानुसार महाकाव्य या काव्य का नायक धीरोदात्त ही होना चाहिए। सामान्य वर्ग का व्यक्ति महाकाव्य का नायक नहीं हो सकता था। परवर्ती कवियों ने पुराकालीन मान्यताओं से हटकर सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी काव्य का विषय बनाया । प्रासादवासिनी असूर्यपश्या नारी का स्थान खेत में काम करनेवाली श्रमबाला ने तथा राजा एवं सामन्त का स्थान श्रमजीवियों ने ले लिया। आचार्य विद्यासागरजी के कदम तो और आगे बढ़ गए । मिट्टी सदृश तुच्छ एवं उपेक्षिता वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर और उसे महाकाव्योपयुक्त संसिद्धकर आचार्यजी ने साहित्य को एक अपूर्व, नई भावभूमि प्रदान की है। मिट्टी की जीवन-यात्रा मानवीय जीवन-यात्रा का प्रतिरूप है । इसके जीवन-कर्म में मानव जीवन का दर्शन अन्तर्व्याप्त है । मिट्टी की विकास-कथा के विभिन्न चरणों के माध्यम से पुण्यकार्योत्पन्न उपलब्धियों का आकलन प्रस्तुत किया गया है।
वस्तुत: यह कहना कठिन है कि 'मूकमाटी' को काव्य कहा जाए या आध्यात्मिक कृति । सूक्ष्म दृष्टि से काव्य का पर्यावलोकन किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें दार्शनिक एवं आध्यात्मिक गूढार्थों की सहज एवं बोधगम्य व्याख्या की गई है। पुस्तक के प्रस्तवन' (पृ.v) में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन का प्रकथन पूर्णत: सार्थक और प्रसंगत लगता है : "इसीलिए आचार्य श्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है।" वास्तव में 'मूकमाटी' का रोमांस भी आध्यात्मिक कोटि का ही है। माटी कुम्भकार की प्रतीक्षा युग-युग से इसलिए कर रही है कि वह किसी दिन उसका उद्धार अवश्य करेगा और मंगल घट के रूप में उसे वांछित मर्यादा प्राप्त होगी।
आचार्यजी की इस कृति के इस परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन के लिए इसकी कथावस्तु पर ध्यान देना आवश्यक एवं अभीष्ट होगा । कथावस्तु का अध्ययन भी इस सन्दर्भ में किया जाना इष्टकर होगा कि आचार्यजी ने जैन दर्शन के कतिपय मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन और सम्पोषण का कार्य इस कृति में अत्यन्त काव्यात्मक कौशल से किया है। आचार्यजी की एतत् सम्बन्धी स्वीकारोक्ति और स्पष्टोक्ति द्रष्टव्य है : “इस सन्दर्भ में एक बात और कहनी है कि "कुछ दर्शन जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं।" यह मान्यता उनकी दर्शन-विषयक अल्पज्ञता को ही सूचित करती है। ज्ञात रहे, कि श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन. नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है। यथार्थ में ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है, और यही नास्तिकता है, मिथ्या है। ...ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता हैं" ('मूकमाटी'- मानस तरंग-पृ. XXIII-XXIV) । समासत: जैन दर्शन को प्राज्ञ-प्रौढ़ चिन्तन के साथ काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत कर आचार्यजी ने रसास्वाद योग्य ही नहीं बनाया है वरन् इसे विचार और चिन्तन से तरंगायित कर दिया
__'मूकमाटी' चार परिवर्तों में विभक्त है। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में मिट्टी के उस अपरिष्कृत रूप का चित्रण है जब वह संकर' रूप में थी अर्थात् उसमें कंकड़-कणादि मिश्रित थे। कुम्भकार मिट्टी से ‘मंगल घट' निर्माण करने की कल्पना करता है । इस प्रयोजनार्थ वह 'माटी' से कंकड़, तृणादि को अलग कर मौलिक वर्णलाभ कराता है। द्वितीय परिवर्त 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में माटी को खोदने की प्रक्रिया और उस दौरान उसकी कुदाली से एक काँटे के सिर फट जाने की घटना का वर्णन है। कुम्भकार को अपने कृत्य पर ग्लानि और पश्चाताप