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'मूकमाटी' : पिछले दशक की एक सर्वाधिक सशक्त कृति
डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र 'मूकमाटी' आचार्य विद्यासागरजी की चिन्तन-धारा एवं वैचारिक भावभूमि का काव्यात्मक स्फोट है । इसमें आचार्यजी ने भारतीय दर्शन के तत्त्वांशों का निचय सामासिक शैली में प्रस्तुत किया है। दर्शन तथा धर्म के निगूढ़ तत्त्वों को काव्य के साँचे में ढालने की प्रक्रिया अत्यन्त दुरूह होती है । इसीलिए औपनिषदिक साहित्य मात्र प्राज्ञ-प्रौढ़ पुरुषों तक ही संसीमित रह गया है । दर्शन तथा धर्म का मूलाधार है - कठोर सिद्धान्त एवं दृढ़ व्रत । इन दोनों आलम्बों पर काव्य का औदार्य और सौष्ठव खड़ा करना कितना दुष्कर हो सकता है, इसे काव्य-स्रष्टा और साहित्य-मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं। स्वामीजी के सामने जो आदर्श और तथ्यांग थे उन्हें मात्र चिन्तन और अध्यात्म के चक्षु से ही देखा और परखा जा सकता था । आनन्द और सौन्दर्य काव्य के चरमोद्देश्य हैं । इनमें लौकिकता की सम्प्रवाही धारा अन्तर्लिप्त है। समीक्षक मधुमती भूमिका' और 'समाधि' को भले ही समतुल्य मान लें किन्तु रसास्वादन में इनके पार्थक्य का बोध उन्हें भी है। योगी की 'समाधि' दर्शन है और साहित्य की 'मधुमती भूमिका' काव्य । मेरे इस विचार से सुधी विचारक सहमत नहीं भी हो सकते हैं किन्तु मेरा यह निजी प्रत्यय और विश्वास है । मैं मानती हूँ कि कुछ ऐसे चिन्तक एवं विचारक भी होते हैं जो काव्य की परम्परा और पूर्व निर्धारित सिद्धान्तों का अधिलंघन कर नए मानदण्ड का निर्धारण करते हैं। ऐसे युग पुरुष सदा होते आए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ये लीक पर नहीं चलकर अन्यों के लिए लीक का निर्माण करते हैं। काव्य के क्षेत्र में भी यह प्रक्रिया चलती रही है। विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ, मम्मट, दण्डी के काव्यादर्शों के अनुपालन के साथ उन्हें प्रसंस्कारित भी किया जा रहा है। प्रसंस्करण की प्रक्षिप्त अन्तर्धारा कहीं तो अन्त:सलिला सरस्वती सदृश अदृश्यमान है और कहीं त्रिपथगा की भाँति प्रत्यक्षत: प्रवहमान है । आचार्यजी की मूक साधना मूकमाटी' के सदृश ही है । माटी की सौंधी गन्ध से उनकी साधना सुवासित है। इसमें न यथार्थ का परित्याग है
और न कल्पना की अस्वाभाविकता । यथार्थ की नींव पर कल्पना का स्वाभाविक ढंग से व्यवहारोन्मुख विकास खड़ा किया गया है । कल्पना का अर्थ ही 'मूकमाटी' में बदला-सा प्रतीत होता है । वास्तविकता एवं व्यावहारिकता से संयोजित कल्पना प्रकृतस्थ है। काव्य के इसी स्वरूप की व्याख्या करते हुए सुप्रसिद्ध काव्यशास्त्री एल. एबरक्रॉम्बी ने कहा है :
"The prime material of the epic poet, then, must be real and not invented.... The reality of the central subject is, of course, to be understood broadly. It means that the story must be founded deep in the general experience of men". (L. Abercrombie - The Epic, P-55)
महाकाव्य के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं रहा है। प्राचीन एवं अर्वाचीन काव्यशास्त्रियों के मतों में परस्पर विरोध नहीं तो वैमत्य अवश्य है । महाकाव्यों की रूपरेखा और रचनाशैली में थोड़ा-बहुत अन्तर होने पर भी पाश्चात्य और भारतीय महाकाव्यों के मौलिक सिद्धान्त एक ही हैं। मैकनेल डिक्सन ने इसे स्पष्ट करते हए कहा है:
___ "महाकाव्य सब देशों में एक जैसा होता है। वह चाहे पूर्व का हो या पश्चिम का, उत्तर का हो अथवा दक्षिण का, उसकी आत्मा और प्रकृति सर्वत्र एक जैसी होती है । सच्चा महाकाव्य, वह चाहे कहीं भी निर्मित हो, एक प्रकथनात्मक काव्य होता है, उसकी रचना सुसंगठित होती है, उसका सम्बन्ध महान् चरित्रों और उनके महान् कार्यों से रहता है, उसकी शैली उसके विषय की गरिमा के अनुकूल होती है, उसमें चरित्रों और उनके कार्यकलाप को आदर्श रूप देने का प्रयास होता है और उपाख्यानों तथा वर्णन-विस्तार से उसके कथानक की रक्षा तथा समृद्धि होती है।"