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________________ 266 :: मूकमाटी-मीमांसा जल को मुक्ता के रूप में ढालने में/शुक्तिका-सीप कारण है और/सीप स्वयं धरती का अंश है ।/स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर सागर में प्रेषित किया है।/जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है ।/यही दया-धर्म है यही जिया कर्म है।” (पृ. १९२-१९३) दूसरे पदार्थों से प्रभावित होकर उसे प्राप्त करने की इच्छा और उससे सदा संसिक्त रहने की अभिलाषा ही मोह है और सबको छोड़कर अपने आप में भावित होना ही मोक्ष है : "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०) एकान्तवाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद जैसे जैन मत के सिद्धान्तों का निर्वचन करते हुए आचार्यजी ने एक नई शैली का सूत्रपात किया है : "अब दर्शक को दर्शन होता है-/कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का ।/ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/ 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा,/तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! और,/'भी' का कहना है कि हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ ! 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है 'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है।" (पृ. १७२-१७३) गूढ़ दार्शनिक विषय को इतनी सरल एवं सहज शैली में अभिव्यक्त कर आचार्यजी ने अपनी भाषा-विज्ञता का अनुपम उदाहरण उपन्यस्त किया है : "पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है।/यही दया-धर्म है/यही जिया कर्म है।" (पृ.१९३) जीवन के लिए साधना अनिवार्य है। साधना के साँचे में अपने को ढालकर ही आस्था के विषय को आत्मसात् किया जा सकता है: "किन्तु बेटा !/इतना ही पर्याप्त नहीं है। आस्था के विषय को/आत्मसात् करना हो उसे अनुभूत करना हो/तो/साधना के साँचे में
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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