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मूकमाटी-मीमांसा :: 255 काया और माया का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है । उसे सहारे की आवश्यकता होती है। इस सम्बन्ध में कवि का मत है :
"काया जड़ है ना ! / जड़ को सहारा अपेक्षित है, / और वह भी जंगम का । और सुनो ! / काया से ही माया पली है /माया से भावित - प्रभावित मति मेरी यह ।” (पृ. ६६)
कवि के अनुसार काया में व्याप्त कामवृत्ति का ही दूसरा नाम कायरता है। वह कहता
है
" जो कामवृत्ति है / तामसता काय-रता है
वही सही मायने में / भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४ )
आत्मा के सम्बन्ध में कवि का स्पष्ट मत है :
अति संक्षेप में मोक्ष को परिभाषित करते हुए कवि ने लिखा है :
“दु:ख आत्मा का स्वभाव - धर्म नहीं हो सकता,
मोह - कर्म से प्रभावित आत्मा का / विभाव- परिणमन मात्र है वह ।” (पृ. ३०५ )
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'पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है । " (पृ. ९३ )
मनुष्य प्राय: अपने आप को पतित और लघु मानता है। प्रश्न उठता है क्यों ? इस क्यों का उत्तर कवि की इन पंक्तियों में खोजा जा सकता है
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" तूने जो / अपने आपको / पतित जाना है / लघु-तम माना है यह अपूर्व घटना/ इसलिए है कि / तूने / निश्चित रूप से प्रभु को, / गुरु-तम को / पहचाना है !" (पृ. ९)
कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण इस महाकाव्य में सर्वत्र छाया हुआ है । किन्तु वह मानवता पर प्रश्नचिह्न लगाने पर भी विवश हो गया है :
"क्या इस समय मानवता / पूर्णत: मरी है ? / क्या यहाँ पर दानवता
आ उभरी है--- ?/ लग रहा है कि / मानवता से दानवत्ता / कहीं चली गई है ?
और फिर / दानवता में दानवत्ता / पली ही कब थी वह ?" (पृ. ८१-८२)
कवि भाग्यवादी भी है । उस के अनुसार 'कुम्भकार' से बड़ा भाग्यवादी शायद दूसरा नहीं। 'कुं' का अर्थ होता है धरती और 'भ' से बनता है भाग्यवान् अर्थात् :
"यहाँ पर जो / भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८ )
इस महाकाव्य में कवि ने आस्था पर गहन चिन्तन प्रस्तुत किया है :
" आस्था के बिना रास्ता नहीं / मूल के बिना चूल नहीं,