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शब्दों के जादूगर आचार्य विद्यासागर और उनकी 'मूकमाटी'
डॉ. पवन कुमार जैन
जब कि हिन्दी में महाकाव्य लिखने की परम्परा दम तोड़ चुकी है, ऐसे समय में आचार्य विद्यासागरजी की काव्य कृति 'मूकमाटी' का महाकाव्य के रूप में प्रकाश में आना सुखद आश्चर्य ही है । आचार्यश्री ने इस काव्य का मुक्तक छन्द में सृजन कर के अपभ्रंश के उन जैन सन्त कवियों की याद को ताज़ा कर दिया, जिन्होंने प्राचीन काल में हिन्दी के विकास में योगदान दिया । यह महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है। पहले खण्ड में माटी की कंकर युक्त दशा का चित्रण है। दूसरे खण्ड में माटी के माध्यम से काव्यशास्त्रीय विवेचन किया गया है। इस काव्य में वर्णित रस एवं प्रकृति का तात्त्विक विवेचन साहित्य शास्त्र के विद्वानों का ध्यान आकर्षित करेगा। तीसरे खण्ड में माटी की विकास यात्रा आगे बढ़ती है। चौथे खण्ड में मूक माटी कुम्भाकार धारण कर लेती है और उसकी अग्नि परीक्षा की घड़ी आ जाती है ।
यह काव्य दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक तथा आधुनिक सन्दर्भों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचना है । ग्रन्थ के 'प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने लिखा है कि 'यह काव्य आधुनिक जीवन का अभिनव शास्त्र है ।'
कवि की दृष्टि में :
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" बहना ही जीवन है ।" (पृ. २)
" दया का होना ही / जीव-विज्ञान का / सम्यक् परिचय है।” (पृ. ३७)
जीवन-जीवन में भी अन्तर है । इसे स्पष्ट करते हुए कवि कथन है :
“एक का जीवन / मृतक - सा लगता है / कान्तिमुक्त शव है, एक का जीवन / अमृत-सा लगता है / कान्ति-युक्त शिव है । शव में आग लगाना होगा, / और / शिव में राग जगाना होगा ।” (पृ. ८४)
जीवन के सम्बन्ध में सन्त मत प्रस्तुत करते हुए कवि उक्ति है :
"सर्वं - सहा होना ही / सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है ।" (पृ. १९० )
जीवन के साथ दु:ख-सुख लगे ही रहते हैं। किसी ने कहा है कि 'मर्ज़ का हद से गुज़र जाना ही है दवा हो जाना।' इसी रंग और ढंग में कवि कहता है :
"पीड़ा की अति हो / पीड़ा की इति है / और पीड़ा की इति ही / सुख का अथ है।” (पृ. ३३)
कवि ने दुःख से मुक्ति का मार्ग भी सुझाया है :
" रसना ही / रसातल की राह रही है/ यानी ! जो जीव अपनी जीभ जीतता है/दु:ख रीतता है उसी का सुख-मय जीवन बीतता है / चिरंजीव बनता वही ।” (पृ. ११६)