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________________ 250 :: मूकमाटी-मीमांसा गतिविधियों को आक्रामक की उपाधि दिए जाने से सन्त-कवि के प्रति मन में जो श्रद्धा है, उसे ठेस पहुँची है । मेरा विश्वास है कि एक तपस्वी-सन्त कवि के लिए न कोई विदेशी-स्वदेशी तथा न ही पाश्चात्य एवं प्राच्य है । उनके लिए तो सारा विश्व 'वसुधैव कुटुम्बकम्' है, जिस पर प्रथम खण्ड में प्रकाश डाला है सन्तजी ने। जब मानव हृदय में अपना' या पराए' के भाव रहते हैं, तब संकीर्णता, सम्प्रदायवाद आदि विघटनकारी तत्त्वों का आरम्भ होता है। भारतीय संस्कृति में वैराग्य के महत्त्व एवं अनिवार्यता पर कवि ने तुलनात्मक शैली में अपने विचारों के मन्थन द्वारा यह स्पष्ट किया है कि एक ओर तो भौतिक चकाचौंध साधना के मार्ग में व्यवधान उपस्थित करती है, वहीं दूसरी ओर मायामोह, नाते-रिश्ते, विलास-वैभव, ऐश-ऐश्वर्य इन सबको तजकर आध्यात्मिक एवं अविनाशी सम्पदा को सम्पन्न करने हेतु अनासक्ति के जीवन को वरण करना ही वास्तविक एवं अनादि सुख तथा शान्ति के जीवन में प्रवेश करना है अर्थात् ईश्वर के सान्निध्य में वास करना है। सृष्टि तो स्वयं कल्याणकारी है। मानव मन ही उसे सत्-असत् तथा भले-बुरे के वर्ग में रखता है। मन की अस्थिरता एवं चंचलता ही भावों को साकार करती है। महामना कवि ने 'साहित्य' शब्द की व्याख्या अपनी मौलिक सूझ-बूझ के साथ प्रस्तुत कर मोक्ष हेतु उसकी भूमिका को स्पष्ट कर, आज के साहित्य में आध्यात्मिक मूल्यों के अभाव की ओर सुधी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। साथ ही साहित्यकारों को उनके आध्यात्मिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग किया है । मनुष्य के छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े कर्त्तव्य के मूल में जीवन की सार्थकता निहित होती है। महामहिम कवि ने इस खण्ड में भाषा की मौलिकता द्वारा भावों की अभिव्यक्ति तीनों शैलियों-व्यंजना, लक्षणा तथा अभिधा का भरपूर प्रयोग किया है । इससे विद्वान् सन्त कवि के साहित्य एवं व्याकरण के गहन अध्ययन व ज्ञान का आभास पाठकों को जीवन के लक्ष्य पर सोचने को विवश कर देता है । मानव शिशु में संस्कारों का उचित पल्लवन करना प्रत्येक माता का धर्म-कर्म होता है । इसे कविवर ने 'धरती माँ' का उदाहरण देते हुए प्रस्तुत किया है, जो कि व्यष्टि को समष्टि के लिए जीने का सन्देश देती है। किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में व्यक्तिवाद के बढ़ते चरण समष्टि के लिए जीने के सिद्धान्त को विस्मृत करती दिखाई दे रही है, जिसे कवि ने पुन: जाग्रत करने का सन्देश दिया है। इस खण्ड में दूसरी प्रमुख बात यह है कि आज के युग में हर व्यक्ति यह चाहता है कि दुसरे उसके इशारों पर चलते रहें। वह दूसरों को यह शिक्षा या उपदेश देता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। विडम्बना यह है कि वह स्वयं अपने उपदेशों तथा शिक्षा के प्रतिकूल आचरण करता है । बस यहीं से अहम्' का आरम्भ होता है तथा विकृत अहम् हर बुराई का मूल है । सन्त कवि ने ठीक ही कहा है कि ऐसों की संख्या बहुत अधिक है। कविश्री ने मानव संवेगों के मूल में जो परस्पर आदान-प्रदान का सुख है, उसे साधना के मार्ग में बाधक निरूपित किया है, कारण कि इससे भौतिक सुख और सन्तुष्टि का जो अनुभव किया जाता है वह अपना फल इस संसार में ही प्राप्त कर लेता है तथा इसमें पुण्य का कहीं स्थान नहीं होता । मानव जीवन की अन्तिम यात्रा, जो कि संसार में उसके जन्म लेते ही प्रारम्भ हो जाती है, पुण्य ही तो इस यात्रा का अन्तिम लक्ष्य है, जिसे आज का भौतिकवादी, शिक्षित वर्ग विस्मृत करता जा रहा है। संवेदनाओं की जो व्याख्या प्रस्तुत की गई है, उससे सन्त के रस, अलंकार आदि के सम्बन्ध में अपार ज्ञान की झलक सामने आती है। भक्ति रस के यथार्थ आनन्द की अनुभूति हेतु मन की एकाग्रता, स्थिरता एवं एकान्त को अनिवार्य बतलाते हुए साधनारत मुनिजी ने शान्त रस की सही अर्थों में व्याख्या प्रस्तुत कर उसे भक्ति का मूल बतलाया है, जिसे सामान्य कवि इस दिशा में नहीं सोच सकता। चेतन को सुरक्षित रखने हेतु जीवन के हर क्षण व पल को 'परम केन्द्र' यथार्थ प्रभु के चरणों में समर्पित करने के सिद्धान्त को कविश्री ने 'केन्द्र' तथा 'परिधि के अन्तर को स्पष्ट किया है। केन्द्र' सुख की निधि है और परिधि' को भ्रमण की संज्ञा दी है । शाश्वत जीवन में प्रवेश हेतु सांसारिक विघ्न-बाधा, प्रलोभन, माया
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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