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मूकमाटी-मीमांसा :: 249 कुछ दर्शनीय है तो वह है भिन्न ज्योति वलयों का स्वयं में सन्तोष तथा पूर्णता की अलौकिक अनुभूति । यहाँ है केवल प्रेम-स्तवन, पूजा-अर्चना, यशोगान की तानें । समय व काल के बन्धनों से मुक्त मानव स्वतन्त्र स्वरों में प्रेमसागर की मधुरिमा - गरिमा और शान्ति के आलापगान में ही विभोर हो जाता है ।
इस खण्ड की इतिश्री सन्त - कवि ने समस्त जीवों के प्रति दयाभाव का व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत कर सब का जीवन-अधिकार सम्बल प्रदान कर उसे दृढ़ बना दिया है। प्रथम खण्ड की मूल सामग्री 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' को साधनारत कवि ने यथार्थ जीवन के वर्ण व्यवस्था की विकृतियों एवं विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए व्यक्ति में व्याप्त बुराइयों का निष्कासन कर उसकी पौरुषेय शक्ति के उपयोग पर प्रकाश डाला है । व्यक्ति के स्वभाव व कर्मों का मूल्य है, न कि जातिगत विभाव का। 'माटी' एवं 'धरती माँ' का परस्पर पावन वार्तालाप गुरु-शिष्य की प्राचीन भारतीय परम्परा की गौरव गरिमा का आह्लादकारी स्मरण को जीवन्त कर देती है, जो आज के युग में भौतिकवाद के समक्ष कल का अर्थात् अतीत का आदर्श मात्र रह गया है। समय-समय पर इतिहासकार, साहित्यकार एवं समाजसेवी जैसे वर्ग प्राचीन गुरु-शिष्य के आदर्श सम्बन्धों पर लेख प्रस्तुत करते हैं, भाषण देते हैं, प्रतियोगिताओं का आयोजन कर उन्हें ग्रन्थों में सुरक्षित रखते तथा पुरातत्व विभाग की शोभा - वर्धन करते हैं, जिसका कि यथार्थ जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया । इसी कटु सत्य को रचनाकार समाज के सामने 'मूकमाटी' के आदर्श द्वारा प्रस्तुत किया है।
आकर्षण अनुकरण के लिए बाध्य करता है, किन्तु जिसके पास जो है वही तो अन्यों को देगा । साधना की भट्टी में तपकर जिसने जो खरापन प्राप्त किया है उस पर कीच, कंकड़, तिनका, पत्थर, लोहे की कठोरता एवं शुष्कता का प्रभाव कभी नहीं पड़ता । आधुनिकता ने मानव को मानवता से कितना दूर किया है और करता ही जा रहा है, इस यथार्थ एवं विश्वसनीय चित्रण प्रस्तुत कर कवि ने मानवता का सन्देश दिया है । यही आज के विश्व समाज का आर्तनाद है, जिसे भक्त कवि ने अनुभूत किया है। प्रस्तुत खण्ड का अन्तिम किन्तु अत्यावश्यक बिन्दु है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना, जो भारतीय संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है । इसका उल्लेख हमारे धर्मग्रन्थों में किया गया है तथा इसे साकार करने
हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी एवं संन्यासी वर्ग सदियों से प्रयासरत है। वह हर जीवधारी के प्रति मन, वचन एवं कर्म से अहिंसा, सत्य तथा प्यार का सन्देश प्रसारित करता आ रहा है । किन्तु भोग-लिप्सा में लिप्त आज के प्रगतिशील एवं अत्यन्त सभ्य कहलाने वाले समाज के गले से सत्य उतरते नहीं । अन्त में दयावीर कवि ने आहत मर्म से हमारी पावन एवं तपोभूमि पर से प्राचीन आदर्शों की निष्ठुरता से हत्या होती देख चिन्ता एवं खेद व्यक्त किया है।
दो शब्दों के सारगर्भित वाक्यांश का जो विश्लेषण प्रबुद्ध मुनिश्री ने किया है, उसे हम जीवन के हर क्षेत्र में पाते हैं, किन्तु मदहोशी से मानव जीवन सत्य से कोसों दूर भटक गया है । प्रस्तुत महाकाव्य भूले-भटके को सही मार्ग पर अवश्य लाएगा । कवि को भय है कि कहीं कलियुग मानव संवेदनाओं को भस्म न कर दे, अतः गुरुरूपी धरती माँ द्वारा हमारे हृदय में स्थित पौरुष की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए वे कहते हैं :
"सत् - युग हो या कलियुग / बाहरी नहीं / भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही / सत्-युग है, बेटा !” (पृ. ८३)
मनुष्य में आध्यात्मिक जागृति का आरम्भ ही मानवता का आरम्भ है । इसके लिए इस खण्ड में साधनामार्ग के विभिन्न रूपों द्वारा सन्त-शिरोमणि कवि ने अत्यन्त सफलतापूर्वक वीतरागी जीवन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है ।
द्वितीय खण्ड ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' का आरम्भ 'प्रेम' एवं 'नम्रता' की नींव पर हुआ है, जो कि 'मोक्ष' प्राप्ति की आधारशिला है । किन्तु यहाँ एक बात थोड़ी असंगत-सी प्रतीत हुई । पाश्चात्य जगत् की