________________
248 :: मूकमाटी-मीमांसा महाराजश्री ने कहा है :
"कभी-कभी/गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी/आह भरते हैं,/मन खिन्न होता है किन्तु/यह सब आस्थावान् पुरुष को/अभिशाप नहीं है,
वरन्/वरदान ही सिद्ध होते हैं/जो यमी, दमी/हरदम उद्यमी है।” (पृ. १३) जैन दर्शन स्वयं एक विलक्षण दर्शन है, जिसकी अपनी मौलिकता है, तथा इसी से उसकी अपनी एक अलग अस्मिता है। अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्ति स्वयं का भाग्य निर्माता है । कर्मयोग और श्रमरूपी दो अहिंसात्मक अस्त्रों से वह सब कुछ करने में सक्षम है । पुरुषार्थ एवं आस्था के सोपानों की नींव पर वह स्वयं भगवान् है । ईश्वर भगवान् के अस्तित्व को जैन दर्शन स्वीकार करता है, किन्तु विश्व संचालक के रूप में वह उसे स्वीकार्य नहीं है । अतएव 'मूकमाटी' महाकाव्य मनुष्य के कर्म, श्रम, आस्था एवं पुरुषार्थ का क्रमवार विश्लेषण प्रस्तुत करता है । अन्य धर्म के दर्शन इन तत्त्वों को स्वीकारते तो हैं, यदि कहीं भिन्नता है तो वह है भाग्यवाद' अर्थात् सृष्टि के स्रष्टा द्वारा पूर्व नियोजित रूपरेखा के अनुरूप मनुष्य की गतिविधियाँ संचालित होती हैं, इसीलिए कहा कहा गया है – 'होनी को कोई टाल नहीं सकता।'
व्यष्टि एवं समष्टि के आध्यात्मिक शोधन हेतु व्यक्ति को मौन साधक बन कर प्रताड़ना, अवहेलना, उपेक्षा, पीड़ा आदि को अपने भीतर समा लेना होता है। जैसे कवि ने माटी एवं कुम्भकार के उदाहरण द्वारा प्रस्तुत कलश के सुन्दर आकृति में ढलने के पूर्व माटी में निहित बाधक अंशों को उसमें से अलग करने की जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, यह स्वयं में कवि की अपनी सूझबूझ की उपज है, जो कि आध्यात्मिक साधना की पावन धरती की ऊँचाई पर माटी को आसीन करता है । आध्यात्मिक कल्पना के धनी धर्मवीर साधक ने माटी की शोधन क्रिया के दौरान उसके पीडायुक्त इतिहास को क्रमश: व्यक्त किया है । अशुद्ध के शुद्धीकरण हेतु जड़ व चेतन जगत् के अपने नियम होते हैं । माटी को शुद्धीकरण हेतु शिल्पी कुम्भकार पर आश्रित होना पड़ता है, तब ही उसे कुम्भाकार प्राप्त होता है, जिसका प्रयोग हमारे पावन एवं आध्यात्मिक कार्यक्रमों एवं समारोहों पर किया जाता है। समाज में उपेक्षित वर्ग के आध्यात्मिक एवं भौतिक उत्थान हेतु इस महाकाव्य के माध्यम से कवि की अपनी अनमोल देन है। यदि समाज इसे साकार रूप दे तो आज विश्व में व्याप्त अशान्ति, अनास्था, द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थपरता एवं घृणा समाप्त हो सकती है, जो मानवता के मार्ग में बाधक है। इस कृति का मूल भी यही है।
. माटी एवं शिल्पकार का रूपक बाँध कर जो आध्यात्मिक सन्देश प्रेषित किया गया है, उसमें निहित कवि के भावों की परिपक्वता, भाषा की सुगमता, शैली की ओजस्विता, चिन्तन एवं संयम की दीप्ति ने पुनः हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि हम क्या हैं ? कहाँ से आए हैं ? हम क्यों आए हैं ? और क्या है हमारा गन्तव्य ? मन, वचन व कर्म की शुद्धता तथा समरूपता ही साधक-कवि का समाज को सन्देश है, यही मानव को अपने अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाता है । सात्त्विक एवं तामसिक गुणों का संश्लेषण-विश्लेषण करते हुए, 'स्व' एवं 'पर' की व्याख्या प्रस्तुत कर उनका परस्पर साम्य और वैषम्य को बड़ी बखूबी से अंकित किया गया है। साथ ही विलास-वासना की युगलबन्दी कर उससे मोहपाश' को जन्म दिया । इसी के विपक्ष में 'दया' और 'विकास' से 'मोक्ष' का मार्ग प्रशस्त किया है। संवेदन धर्म' और 'करुणा' को पीयूषागार निरूपित किया है। इस तरह हम देखते हैं कि दर्शन एवं आध्यात्मिक महाकाव्य की प्रत्येक पंक्ति आध्यात्मिक तृष्णा को तृप्त करती हुई, सुधी पाठकों को उस लोक में प्रवेश कराती है, जहाँ वह इस विराट विश्व को एक ऐसे परिवार के रूप में पाता है, जो कि एक ही प्रकाश पिण्ड के विभिन्न ज्योति वलयों से व्याप्त है । यदि