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मूकमाटी-मीमांसा :: 247 पुरुषार्थ-साधना-निमग्न कवि ने स्वानुभूति से यह सिद्ध किया है कि संगति के सही चयन का मार्ग कौन-सा है। सदियों से ही उचित-अनुचित के चयन-त्याग का सर्वश्रेष्ठ मार्ग साधना कर्ममार्ग को ही अंगीकार किया गया है। इसके निर्वाहनार्थ लौकिक जीवन की अपेक्षा अलौकिक जीवन मार्ग अधिक उपयुक्त पाया गया है। किन्तु यथार्थ के धरातल पर ही साधना की उपलब्धि को अध्यात्म-कवि ने दोनों में ऐक्य के समागम से ही कथनी एवं करनी में साम्य की अनिवार्यता, तदनुसार उनके सम्प्रेषण और फिर निखार की निश्चितता का उद्घाटन किया है । इसे कवि की ही वाणी में :
“सरकन-शीला सरिता-सी/लक्ष्य की ओर बढ़ना ही
संप्रेषण का सही स्वरूप है।” (पृ. २२) मानव कल्याण में सतत संघर्षरत सन्त-कवि ने अध्यात्म साधना की सफलता को पूर्णत: लौकिक जीवन के संघर्ष में ही बतलाया है । अन्तर व्यक्तिगत आस्था पर निर्भर करता है । गृहस्थाश्रम भी सिद्ध जीवन की ओर अग्रसर करता है । मौलिक साधक की परीक्षा इसी जीवन में होती है जहाँ वह 'खरा' साबित होने हेतु पल-पल राख' में परिवर्तित होता रहता है । यह शब्द विश्लेषण ज्ञान-मनीषी के चिन्तन से प्रस्फुटित हुआ है । इन सबके अतिरिक्त संन्यासी-जीवन को ही श्रेष्ठतर निरूपित किया गया है । इस महाकाव्य में हम इसी की महिमा देखते हैं जो लघुतम से महत्तम की ओर ले जाता है । संसार में लघु एवं मूक कहलाने वाले पात्रों के माध्यम से योगी रचनाकार कहते
"...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है। आस्था के तारों पर ही/साधना की अंगुलियाँ/चलती हैं साधक की,
सार्थक जीवन में तब/स्वरातीत सरगम झरती है !/ समझी बात, बेटा?" (पृ.९) धरती माँ द्वारा दिया गया यह साधनात्मक प्रवचन दोनों मार्गों के साधकों के अनुरूप है। 'स्व' को विस्मृत कर जब साधक पार्श्व में रहकर अपनी भूमिका के प्रति सजग व सतर्क रहता है, वहीं से उसके पुरुषार्थ को अभिव्यक्ति प्राप्त होने लगती है। लघुता से गुरुता का सूत्रपात यहीं से होता है । महाकाव्य का प्रथम खण्ड का अध्यात्मवाद निष्क्रिय आस्था को स्थान नहीं देता किन्तु इसे साकार करना इसका परम ध्येय है । इसके आवश्यक तत्त्व हैं-आत्मानुभूति एवं सम्प्रेषण । इनकी उपलब्धि साधना के ढाँचे में ढलती है। आत्मानुभूति के साथ ही उसे आत्मसात् करना अनिवार्य शर्त है। इसके अभाव में उसका कोई महत्त्व नहीं है । साधना की चुनौतियाँ आसान नहीं हैं । सब के वश की बात नहीं है । इस में त्याग, तपस्या, चिन्तन-मनन, एकाग्रचित्त एवं कर्म के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण होता है।
साधना के मार्ग में आने वाले व्यवधान कुछ कम नहीं हैं। सर्वप्रथम हमारी प्रकृति एवं मायावी संसार के प्रलोभन हमसे संलग्न रहना चाहते हैं किन्तु सतत प्रयास तथा श्रम द्वारा समस्त चुनौतियाँ स्वीकार्य हो जाती हैं । आध्यात्मिक काव्य के रचनाकार ने जैन दर्शन के अनुरूप किसी भी पुरुषार्थयुक्त कर्म को आरम्भ करने का कोई अवसर या मुहूर्त को नहीं माना है। यदि कोई अनुकूलता की प्रतीक्षा में रहता है तो उसके पुरुषार्थ को यह एक चुनौती होती है। स्वयं में आस्थावान् व्यक्ति के लिए हर प्रस्तुत अवसर ही कर्मठता का प्रेरणास्रोत है। इसी सत्य को आस्था के अक्षय-आगार