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________________ 246 :: मूकमाटी-मीमांसा गतिशील रखने एवं उसके मूल में जो है, उन सब को आधुनिक तकनीकि भाषा एवं शब्दावलियों सहित इस काव्य में देखा जा सकता है । इससे समाज के प्रति कवि की जागरूकता सहज ही देखी जा सकती है। परिर्वतन ही प्रकृति का नियम है'- इस सिद्धान्त के साथ तालमेल बैठाता हुआ कवि पाठकों को आध्यात्मिक जीवन व दर्शन के स्रोतों की ओर ले जाने में सफल योगदान दे रहे हैं। संघर्षरत जीवन की अनिवार्यता एवं उससे नि:सृत होने वाली शाश्वत जीवन की सार्थकता को कवि ने उन दो पात्रों में प्राण फूंककर स्पष्ट किया है जो मानव को अपनी सतत गतिशीलता द्वारा यह बतलाती है कि संघर्ष एवं श्रम, जो दीर्घकालीन होते हैं, वे अखण्ड जीवन ज्योति में परिवर्तित हो जाते हैं। वे मूक पात्र हैं-सरिता तट की 'माटी' और 'धरती'-जो हमारे समक्ष 'विश्व माता' के रूप में आती है। संघर्ष रूपी भँवरों में फंसकर टूट जाना एक सत्य है, किन्तु जब टूटते या डूबते हुए को सम्बल प्राप्त होता है, तब संघर्षों की चुनौतियों का सामना करना आसान हो जाता है । सरिता तट पर थपेड़ों के बीच गिरती-पड़ती एवं चोटें खाती मिट्टी धरती माँ से कहती है : “और सुनो,/विलम्ब मत करो/पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !"(पृ.५) निराशा में आशा की किरण संघर्षमय जीवन के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन कर उसे जीने योग्य बना देती है । हर उपलब्धि का अपना निर्धारित समय होता है । तप:श्री ने इस हेतु धैर्य एवं दीर्घ प्रतीक्षा का आह्वान करती हुई, माँ धरती से खसखस के सूक्ष्म दाने का उदाहरण उद्धृत किया है : "समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो/समयोचित खाद, हवा, जल उसे मिलें/अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में/विशाल काय धारण कर वट के रूप में अवतार लेता है,/यही इसकी महत्ता है।" (पृ. ७) इस खण्ड का दूसरा प्रमुख बिन्दु है संगति का प्रभाव । ज्ञान के मुक्तामणि, तरुण, बालब्रह्मचारीजी ने स्वयं के स्वभावानुकूल स्फटिक सदृश्य पारदर्शी जल का काव्यमयी एवं हृदयंगम भाषा द्वारा यह स्पष्ट किया है कि विभिन्न पदार्थों एवं व्यक्तियों के निकट सम्पर्क में आने से व्यक्ति उसी रूप में ढल जाता है । अतएव संगति के चयन में जीवन के प्रति दूरगामी दृष्टिकोण तथा उसके परिणामों का आकलन कर लेना चाहिए । पुरुषार्थ को निखारने, ढालने और उसे देवत्व तक अग्रसर करने में संगति का प्रभाव एक वरदान सिद्ध होता है। __यह विश्व जो क्षणभंगुर कहलाता है, सुख-दुःख दोनों का समन्वित रूप है तथा जिसके आध्यात्मिक चक्षु अपने पुरुषार्थ के प्रति सतत अवलोकन का अभ्यस्त हो गया है, वही व्यक्ति निर्लिप्त होकर क्षणभंगुर कहलाने वाले विश्व के माध्यम से अपने पुरुषार्थ तथा श्रम के बल पर ही अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। प्रणम्य आचार्यजी की कृति 'मूकमाटी' हमारे सामने इसी दर्शन को स्पष्ट कर रही है कि मनुष्य कभी परजीवी नहीं हो सकता। वह रिद्धि-सिद्धि को प्राप्त करने में सक्षम है। मनुष्य के लिए नित्य ही एक आदर्श की आवश्यकता रही है। इसी से उन्होंने संगति की उपादेयता पर धरती माँ से कहलवाया है : "जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है/मति जैसी, अग्रिम गति मिलती जाती मिलती जाती" /और यही हुआ है युगों-युगों से/भवों-भवों से !" (पृ. ८)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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