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मूकमाटी-मीमांसा :: 245
'मूकमाटी' महाकाव्य में देखने को मिलता है । ये साधक अपने उपदेश, प्रवचन एवं 'मूकमाटी' जैसी रचनाओं द्वारा समाज के जीवन को प्रभावित करते रहते हैं। प्रस्तुत रचना के अध्ययन से यह आभास नहीं होता कि इसके रचयिता एक तपे हुए, वीतरागी एवं श्रमणों के मुनिवर हैं । उनके भौतिक विषयों की पकड़ को देखकर मैंने ऐसा कहा है। आध्यात्मिक पक्ष तो कवि-तपस्वी का जिया हुआ यथार्थ है, जिसका समन्वय लौकिक पक्ष के साथ कर कवि ने उसे उदात्त व भोग्य बना दिया है।
आधुनिक युग के प्रत्येक क्षेत्र एवं जीवन के विभिन्न आयामों पर मुनिश्री की पकड़ एवं ज्ञान के भण्डार पर ऐसा अधिकार है मानो वे साक्षात् उसे जी रहे हैं। सामान्यत: साधना मार्ग के तपस्वी वर्ग को विश्व की मायावी गतिविधियों से कोई मतलब नहीं होता तथा जन-साधारण भी उनसे यही अपेक्षा करती है। उनका काम अनासक्त जीवनयापन कर निराकार की स्तुति-वन्दन कर उसके ध्यान में लीन रह समाज के एवं स्वयं के आत्म-कल्याण हेतु साधनारत रहना है। उनकी दुनियाँ आत्मा एवं परमात्मा तक सीमित हो जाती है अर्थात् उनका अस्तित्व संसार में होता है, पर वे संसार के नहीं होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि एक वीतरागी संन्यासी, जिसने आध्यात्मिक साधना में स्वयं को स्वेच्छा से समर्पित कर दिया है, उसे सांसारिक प्रपंचों से दूर रहना चाहिए । मानव समाज में क्या घटित हो रहा है ? क्या होना चाहिए? कैसे होना चाहिए? तथा क्यों होना चाहिए? - इन सब प्रश्नों के उत्तर वह समाज का एक गतिशील अंग बन कर नहीं दे सकता था । आश्रम या मठ की सीमा के भीतर ही त्याग, संयम, प्रार्थना एवं पूजा-अर्चना के माध्यम से ही समाज का कल्याणकारी अंग माना जाता था। किन्तु आज कोई भी व्यक्ति समाज से तटस्थ रह कर उसका भागीदार नहीं बन सकता।
परिवर्तन ही सृष्टि का विधान है। जहाँ परिवर्तन नहीं, वहाँ गतिशीलता एवं प्रगति नहीं हो सकती। आध्यात्मिक महाकाव्य 'मूकमाटी' के कवि ने नि:सन्देह अपनी साधना की अन्तर्दृष्टि से इस सत्य का अनुभव किया है तथा समाज तक इसे पहुँचाने हेतु उन्हें मानो दैवी आदेश प्राप्त हुआ है, जिसे उन्होंने काव्य की भाषा में प्रेषित किया है। आज हर सामाजिक प्राणी की समाज के प्रति और मानवता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को सकारात्मक रूप में निभाने की माँग बलवती होती जा रही है । अत: इस महाकाव्य के कवि ने अपनी कृति में इस उत्तरदायित्व का पूर्णत: पालन किया है। आज का समाज कल के घिसे-पिटे मूल्यों एवं मान्यताओं पर ही टिका नहीं रह सकता। हम आज हर क्षेत्र में प्रवेश करते त्वरित परिवर्तन को देख सकते हैं। ये परिवर्तन मनुष्य को अपनी आरम्भिक आस्था से बहुत दूर ले जाकर उसे विकासशील और प्रगतिशील समाज के लिए बाधक बतलाते हैं। यहीं पर आध्यात्मिक साधक उपस्थित होकर समाज के आध्यात्मिक कल्याण हेतु अपनी अहम भूमिका निभाता है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण है 'मूकमाटी'।
प्रथम खण्ड का दूसरा प्रमुख बिन्दु है 'संघर्ष' । संघर्ष ही जीवन है । इस सत्य को हम नकार नहीं सकते । संघर्षों के समक्ष घुटने टेकना और हाथ जोड़ना जीवन के सत्य से दूर भागना है । जीवन के अन्तिम क्षण तक, लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संघर्षरत रहना शाश्वत जीवन की माँग है । जिस पर भी सफलता की उपलब्धि हो या न हो, इसके लिए हम जवाबदेह नहीं हैं । संघर्षरत यथार्थ जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, सहर्ष विफलताओं का आलिंगन करना, मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करना है । आध्यात्मिक साधना एवं जैन दर्शन पर आधारित होने से 'मूकमाटी' जैसी अद्वितीय रचना पर विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत करने में मैं स्वयं को अक्षम अनुभव कर रही हूँ, अत: उन्हीं बिन्दुओं पर मैंने समीक्षा करने का प्रयास किया है, जिनसे मैं विशेष रूप से प्रभावित हुई हूँ।
___ मनन एवं अध्ययनशील तपस्वी कवि ने आधुनिकता को आध्यात्मिक धरातल पर रख मानवता का मूल्यांकन किया है । संसार से दूर रहकर भी कवि उसकी प्रत्येक गतिविधि से परिचित है । आधुनिक विश्व की आधुनिकता को