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242 :: मूकमाटी-मीमांसा
की व्यथा, बदली और मेघ के प्रकार्यों की अलग-अलग व्याख्या आदि । कवि ने साहित्य और उसके नव रसों की व्याख्या के लिए भी समुचित अवकाश निकाला है । लगभग ३२ पृष्ठों में चलती यह व्याख्या (पृ. १२९-१६०) कहीं पर भी आरोपित नहीं लगती। शिल्पी कुम्भ पर जो चिह्न अंकित करता है उनकी भी दार्शनिक-व्यावहारिक व्याख्या की गई है (पृ. १६६-१७६) । सबसे अधिक उल्लेखनीय है कवि का लोकज्ञान । इस काव्य में शताधिक ऐसे स्थल हैं जहाँ कवि ने समसामयिक समस्याओं पर टिप्पणी
"'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता। ...'भी' के आस-पास/बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य,
किन्तु भीड़ नहीं,/'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है।" (पृ. १७३) इसी प्रकार स्वर्णकलश को कहा गया है :
“परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम,/पूँजीवाद के अभेद्य
दुर्गम किला हो तुम/और/अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६) यहाँ तक कि विज्ञान का अतिचार, आतंकवाद जैसे अधुनातन प्रसंग भी इस काव्य में उठाए और सोद्देश्य निरूपित किए गए हैं।
भाषा पर कवि का अधिकार असीम है । भाषा उसके संकेत पर इठलाती, थिरकती, भ्रू-निक्षेप करती, गरजती-बरसती व अनेक खेल दिखाती है । यहाँ विशेष उल्लेखनीय है शब्दों को तोड़कर अक्षर-अक्षर की नई अर्थवत्ता खोजने और व्याख्या करने की उनकी क्षमता, जो एक ही साथ दर्शन और काव्यभाषा पर कवि की प्रचण्ड सत्ता को सूचित करती है।
संक्षेप में 'मूकमाटी' क्षुद्र, पद दलिता, पतिता माटी के साधना के उच्चतम शिखर पर चढ़कर सिद्ध हो जाने की ही महागाथा नहीं, बल्कि, मनुष्य की सतत साधना और अनवरत संघर्ष की कथा है । इस काव्य में दर्शन, काव्य और जीवन दर्शन की त्रिवेणी छलछला रही है । यह काव्य महाकाव्य नहीं, महान् काव्य है जिसमें मिथक काव्य में ढलकर आधुनिक और शाश्वत मानवीय मूल्यों का जीवन्त आलेख बन गया है।
पृष्ठ ३ क्यों कि, सुनो / ----- .... याद दया |