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मूकमाटी-मीमांसा :: 241 जिस प्रकार इस रचना में मिट्टी जल की तरलता में मिलकर कुम्भ की रचना के योग्य बनती है । कवि का अभिप्राय केवल दार्शनिक तथ्यों का निरूपण करना नहीं है, बल्कि दर्शन को जीवन दर्शन में रूपान्तरित करना है । दर्शन जब मानवीय समस्याओं और चिन्ताओं से जुड़कर उसके समाधान हेतु दृष्टि देता है तब वह जीवन दर्शन बन जाता है। वह दर्शन से दृष्टि बन जाता है। यह दर्शन की जीवनोन्मुख और सामाजिक प्रस्तावना है। आज ही नहीं, भारतीय इतिहास
हर युग में दर्शन तभी सार्थक हुआ है जब वह एकान्त साधना और चिन्तन के शिखर से उतरकर कर्म जीवन की कठोर संकुल धरती पर आया है और मनुष्य के लिए उपयोगी बना है। जैन साधक आचार्य श्री विद्यासागर ने 'मूकमाटी' का सृजन इसी उद्देश्य से किया है कि इसके माध्यम से “सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल किया जा सके, और "भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण संस्कृति को जीवित" रखा जा सके ('मानस तरंग', भूमिका, पृ. XXIV)। लेकिन यह 'वीतराग श्रमण संस्कृति' कर्म पर आधारित है, अकर्मण्यता पर नहीं। जैन दर्शन का मूल यही कर्म सिद्धान्त है, जिसके अनुसार कर्म के संस्कार क्षण-क्षण स्रवित होते रहते हैं, जिनका प्रभाव जीव पर क्षण-क्षण पड़ता जा रहा है। अतएव साधक कर्म से क्षरित होने वाले संस्कार से अलिप्त रहने का उद्योग करता है। लेकिन, आत्मा को पूर्वार्जित संस्कार भी घेरे हुए हैं, इनसे छूटने के लिए भी साधना करनी है । इस प्रकार जैन दर्शन में वर्णित रूपक के अनुसार जीवन नौका में छेद हैं, जिनसे पानी भरता जा रहा है। वही 'आस्रव' है । छेदों को बन्द करना ही 'संवर' की साधना है, और नाव में पहले से जो पानी भरा हुआ है, उसे उलीचना 'निर्जरा' है। 'संवर' और 'निर्जरा' के द्वारा जिसने अपने को संस्कारों अथवा आस्रवों से मुक्त कर लिया, वही 'मोक्ष' प्राप्त करता है । इस साधना को दार्शनिक या साधक की दुरूह, ऐकान्तिक प्रक्रिया से उठाकर कवि मनुष्य जीवन के दैनन्दिन प्रसंगों में ले आता है और उसे जीवनोन्मुख रूप प्रदान करता है। कर्म करते हुए उसके मोहलिप्त आसंगों से कटना, एक महत् उद्देश्य की ओर अकम्प निष्ठा से बढ़ते रहना ही कैवल्य की साधना है। इस काव्य में इसीलिए अनेक ऐसे छोटे-छोटे प्रसंग आए हैं जहाँ कवि व्यावहारिक जीवन के प्रसंग निरूपित करता चलता है। जैसे माटी को ढोने वाले गधे को भी नया सन्दर्भ दिया गया है :
" मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / गद का अर्थ है रोग हा का अर्थ है हारक/ मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ / बस, और कुछ वांछा नहीं / गद- हा गदहा !" (पृ. ४० )
इस प्रकार जल में आई मछली की कामना :
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'यही मेरी कामना है / कि / आगामी छोरहीन काल में बस इस घट में/ काम ना रहे !" (पृ. ७७)
इसी प्रकार रस्सी में पड़ी गाँठ को खोलने में शिल्पी का श्रम सोद्देश्य है, क्योंकि :
'जहाँ गाँठ - ग्रन्थि है / वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है ।
अर्थ यह हुआ कि / ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है
और / निर्ग्रन्थ- दशा में ही / अहिंसा पलती है ।" (पृ. ६४)
ऐसे अनेक प्रसंग हैं जैसे स्वर्णकलश का अहंकार, उसका निवारण, आँवे में रखी जाने वाली बबूल की लकड़ी