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________________ 240 :: मूकमाटी-मीमांसा दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ. १०) और फिर माटी की इस साधना को आरम्भ करता है कुम्भकार । माटी से कुम्भ के रूप में ढलने की कई स्थितियाँ हैं। बहुत कठिन, प्राणान्तक संघर्ष है लेकिन इससे गुज़रे बिना माटी की मुक्ति सम्भव नहीं। इस साधना की पहली स्थिति है माटी के कुदाली से खोदे जाने की, दूसरी स्थिति माटी के शोधन की। माटी संकर दोष से युक्त है, उसमें कंकर मिले हुए हैं, कंकरों में जलधारण की क्षमता नहीं । साधना में ढलने के लिए आवश्यक लचीलापन और तरलता जल ही से मिलकर आ सकती है, इसलिए शिल्पी उसे जल में सानता है, फिर पैरों से रौंदता है । तदनन्तर माटी का लोंदा चक्र पर चढ़ाकर कुम्भ के रूप में ढाला जाता है। कुम्भ पर शिल्पी कुछ सार्थक चिह्न अंकित करता है। इसके बाद कुम्भ की सबसे कठिन परीक्षा आती है और वह है आँवे में तपने की अग्नि परीक्षा । इसके बाद कुम्भ का सांसारिक जीवनानुभव आरम्भ होता है । सन्त पुरुष के स्वागत में स्वर्णकलश की तुलना में माटी के ही कुम्भ को प्रधानता दी जाती है । इतना ही नहीं, काव्य के अन्तिम प्रसंग में सेठ रोगी हो जाता है और एक से एक अनुभवी चिकित्सकों से भी उसका निदान नहीं हो पाता, तब, माटी का लेप ही उसका कष्टहरण करता है । इस प्रसंग में लगभग चार पृष्ठों में चले प्रवाहपूर्ण मनन में कवि ने साधना की आध्यात्मिक गति बताई है। अन्त में चिकित्सक सेठ को माटी के प्रयोग से रोगमुक्त कर उसे स्पष्ट शब्दों में बताते हैं : "यह सब चमत्कार/माटी के कुम्भ का ही है उसी का सहकार भी,/हम तो थे निमित्त-मात्र उपचारक "।" (पृ. ४०९) अन्त में कुम्भ सहित सेठ का परिवार और अन्यजन सरिता के उस तट पर आते हैं जहाँ धरती ने माटी को जीवन का बोध और मुक्ति की दिशा दी थी। माटी को उसकी साधना की सफलता पर धरती साधुवाद देती है : "निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो/सृजनशील जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ।” (पृ. ४८३) साधना की यह सफलता और मोक्ष की यह दिशा केवल माटी को नहीं मिली है, बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज सन्त के मुख से इस अमृत का पान करता है : "क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ वहाँ आकर देखो मुझे,/तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान/क्योंकि ऊपर से नीचे देखने से/चक्कर आता है/और/नीचे से ऊपर का अनुमान लगभग गलत निकलता है।/इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ, हाँ, हाँ !!/विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी मगर/मार्ग नहीं, मंजिल पर !" (पृ. ४८७) अत: माटी के माध्यम से मनुष्यता की मुक्ति की यह महागाथा एक उदात्त बिन्दु पर आकर जैसे विराम लेती है। जैसा कि पहले संकेतित किया जा चुका है कि यह महाकाव्य बहुआयामी है, इसलिए इसमें प्रयुक्त मिथक भी बहुप्रयोजनयुक्त है। इस काव्य में दर्शन और अध्यात्म के गूढ़ तत्त्व काव्य की सरस रागात्मकता में उसी प्रकार ढले हैं
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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