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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 239 महाकाव्य बनने की एक स्वतःस्फूर्त, जटिल और अनेकायामी प्रक्रिया होती है । इस प्रक्रिया के तीन चरण या तत्त्व विचारणीय होते हैं-पहला महाकाव्य की रचना में अभिप्रेरित और स्वयंचालित कवि का अभिप्राय, उद्देश्य और दृष्टि; दूसरा उसका वस्तुविधान, और तीसरा रूपविधान । ये तीनों तत्त्व एक दूसरे से समन्वित एक विकासशील प्रक्रिया के अंग हैं, इसीलिए अध्ययन की सुविधार्थ इनका पृथक्-पृथक् विवेचन करते हुए भी इनकी समग्र अन्विति का ध्यान रखा जाना आवश्यक है । इनमें सर्वाधिक प्रमुख है कवि की दृष्टि और अभिप्राय, जिसे लेकर वह काव्य की रचना करता है । कवि का अभिप्राय ही काव्य का उद्देश्य होता है। कवि का अभिप्राय उसकी दृष्टि से निःसृत होता है और उसकी दृष्टि उसके जीवन दर्शन का चरम फल होती है । कवि का जीवन दर्शन उसके संस्कारों, विश्वासों, मूल्यों और मान्यताओं का संकुल रूप होता है जिसे वह परम्परा व जातीय स्मृति से प्राप्त करता है तथा स्वानुभव से अर्जित करता है। अपने इस जीवनदर्शन को, अपने विश्वासों और श्रम सिंचित मूल्यों को विराट् फलक व शाश्वत अन्विति देने के लिए कवि मिथक का आश्रय लेता है। उसके रचना कर्म की विशदता व महत्ता इस बात में निहित है कि वह कौन से मिथक का चयन करता है, आस्था और विश्वास की किस भूमि से उस मिथक को काव्य की सर्जन प्रक्रिया में ढालता है और परिणति में उसकी रचना सम्पूर्ण जाति व सभ्यता की धरोहर किस सीमा तक बन पाती है। 'मूकमाटी' में कवि ने भारतीय दर्शन व संस्कृति की गहन सम्पदा से एक मिथक का चयन किया है। यह मिथक चिर पुरातन है और चिर नवीन भी । यह मिथक नहीं, वास्तव में एक प्रतीक है, किन्तु कवि की गहरी जीवनदृष्टि, अनुभव की प्रामाणिकता और अभिव्यक्ति की निश्छलता इस बहुप्रयुक्त सामान्य से प्रतीक को मिथक की ऊँचाई तक लाकर एक परिपूर्ण दार्शनिक-काव्यमय मिथक में रूपान्तरित कर देती है। यह प्रतीक है - कुम्भ का । भारतीय दर्शन में कुम्भ प्रतीक है नश्वरता का । 'घट' शब्द का उपयोग कुम्भ' और शरीर के श्लेषार्थ में सन्तों ने बहुत किया है। 'कुम्भ' बनता है मिट्टी से, मिट्टी पंचतत्त्वों में से एक है, मिट्टी नश्वरता का प्रतीक है और मानव शरीर की अन्तिम परिणति भी मिट्टी ही है। भारतीय दर्शन और काव्य परम्परा के इस अत्यन्त प्रिय प्रतीक 'माटी' को केन्द्रस्थ कर कवि ने 'मूकमाटी' की रचना की है। माटी को साधना की सुदीर्घ प्रक्रिया को ढालकर उसे 'संकरता' और अनगढ़ता के दोषों से मुक्त कर कुम्भ के रूप में आकृति-प्रकृति से युक्त कर और कल्याण के मार्ग में उसे समर्पित कर कवि ने माटी को 'प्रतीक' स्तर से उठाकर 'मिथक' का देशकालातीत संयोजन और अर्थ प्रदान किया है । इसमें सूत्रधार है कुम्भकार, पग-पग पर आनुषंगिक कथाओं, व्याख्याओं और संवादों के द्वारा कवि ने दर्शन के गूढ तत्त्वों को काव्य के तल पर रसमय और आज के सन्दर्भ में अर्थवान् बनाकर प्रस्तुत किया है । इस काव्य में मिथक प्रयोग की विशेषता यह है कि इसमें चिरन्तन सत्य के साथ समसामयिक तथ्यों का भी निर्दशन किया गया है। काव्य का आरम्भ होता है सरिता तट की माटी द्वारा धरती माँ के सम्मुख किए गए इस निवेदन से : D "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, __..अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) 0 "इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की/च्युति कब होगी? बता दो, माँ'इसे !" (पृ. ५) निवेदन और आकुल प्रश्न का उत्तर देती है धरती : “साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष ! पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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