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'मूकमाटी' : मिथक के काव्य में रूपान्तरण की प्रक्रिया
डॉ. शशि मुदीराज
कविता की संरचना द्वन्द्वात्मक होती है - वह कालबद्ध है और कालातीत भी। यह कवि की क्षमता पर निर्भर है कि वह कविता को देश और काल के सीमित फलक पर रचकर उसे तात्कालिक यथार्थ का औसत आकलन बना दे, या उसकी असीम सम्भावनाओं का सन्दोहन कर उसे देशातीत और कालातीत बना दे । निश्चय ही इसके लिए महान् कवि-प्रतिभा की अपेक्षा होती है। महान् प्रतिभा कविता के माध्यम से मानव जीवन के शाश्वत मूल्यों का ध करती है। इसी प्रक्रिया में महाकाव्य की रचना होती है। यूँ तो संस्कृत और हिन्दी के महाकाव्यों की एक लम्बी सूची हमारे पास है, लेकिन यह ध्यातव्य है कि महाकाव्य के सारे लक्षण होने मात्र से या सारी शास्त्रीय शर्तों को पूरा करने मात्र से कोई काव्य महाकाव्य नहीं बन जाता । महाकाव्य से मेरा तात्पर्य है महान् - काव्य - ऐसा काव्य जिसमें परम्परा की रीढ़ हो किन्तु प्रयोग के नवीन रक्त का प्राण संचार हो, जिस में जातीय विश्वासों और मूल्यों का आधार हो किन्तु उनकी तार्किक और तात्कालिक व्याख्या हो, महान् -काव्य अर्थात् एक ऐसा विराट् फलक जिसमें मानव जीवन के चिरन्तन मूल्यों की प्रतिष्ठा हो किन्तु उसके परिवर्तनशील समसामयिक समस्याओं के परिदृश्य की संगति में हो, ऐसा ही महाकाव्य हमारे विश्वास, गर्व, चिन्तन, विचार और तर्क का पात्र बन सकता है । आचार्य श्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' संस्कृत और हिन्दी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं में उपलब्ध महाकाव्यों की परम्परा में एक समृद्ध, सार्थक और सम्भावनापूर्ण योग है, इतना ही नहीं, इस रचना में परम्परा और प्रयोग, मिथक और यथार्थ तथा शाश्वत और समसामयिक जीवन मूल्यों और प्रसंगों का ऐसा समन्वय है कि इसके विविध पक्षों पर एक अन्तहीन चर्चा छेड़ी जा सकती है।
ऊपर कहा जा चुका है कि कविता में देश और काल को अतिक्रमित करने की शक्ति होती है । यह शक्ति आती है मिथक के प्रयोग से । मिथक किसी समाज, सभ्यता और जाति के धार्मिक विश्वासों, ऐतिहासिक परम्पराओं और वैश्विक मीमांसाओं का एक संगुम्फन होता है । किसी सभ्यता में जन्मे मिथक वस्तुतः एक सावयविक पूर्ण (Organic whole) की रचना करते हैं, इसमें भूत, वर्तमान और भविष्य का अन्तर नहीं होता । मिथक एक ऐसे ब्रह्माण्ड की रचना करता है जिसमें मानवीय, प्राकृतिक और अति प्राकृतिक तत्त्व एक व्यापक किन्तु सूक्ष्मता से विशिष्टीकृत क्रीड़ा में भाग लेते हैं । यह क्रीड़ा विनिमय और रूपान्तरण की क्रीड़ा होती है। मिथकीय विचार ईश्वर और मनुष्य को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा नहीं करता। यह दैवी को मानवीय और मानवीय को दैवी में रूपान्तरित करता है । यह ऐसे क्रम की रचना करता है, जिसमें उच्चतर स्तर पर दैवी तत्त्व मनुष्य का प्रतिरूप होता है और इसी क्रम में पशु और वनस्पति जगत् निम्नस्तर पर मानवीय जगत् का प्रतिरूप होता है। इस प्रकार मिथक मनुष्य और शेष प्रकृति में किसी प्रकार का अलगाव नहीं रहने देता और उन्हें एक सावयविक पूर्णता में विन्यस्त करता है। इस प्रकार मिथक की संरचना एक साथ बन्द भी होती है और खुली भी, और इसकी प्रकृति इतिहास - निरपेक्ष होती है । कविता का गर्भाशय यही मिथक है इसीलिए महत् काव्य बार-बार इसकी ओर उन्मुख होते हैं । मिथक का काव्य में रूपान्तरण और काव्य की शर्तों पर रूपान्तरण- यही सूत्र है जिसके द्वारा 'मूकमाटी' की काव्यगत महत्ता के विवेचन का एक प्रयास किया जा सकता है।
'मूकमाटी' में कविश्री आचार्य विद्यासागर ने हमारे जातीय मिथक का ऐसा ही सन्धान किया है। किसी काव्य को महाकाव्य बनाने का रहस्य केवल उसके शास्त्रबद्ध वस्तुविधान और रूपनिर्माण में निहित नहीं है। किसी काव्य के