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236 :: मूकमाटी-मीमांसा
0 "पुरुष होता है भोक्ता/और/भोग्या होती प्रकृति ।
जब भोक्ता रस का स्वाद लेता है,/लाड़-प्यार से/लार का सिंचन कर रस को और सरस बनाती है/रसना के मिष प्रकृति भी।" (पृ. ३९१-३९२) "पुरुष योगी होने पर भी/प्रकृति होती सहयोगिनी उसकी,
साधना की शिखा तक/साथ देती रहती वह ।” (पृ. ३९२) 0 “पुरुष में जो कुछ भी/क्रियायें-प्रतिक्रियायें होती हैं
चलन-स्फुरण-स्पन्दन,/उनका सबका अभिव्यक्तीकरण, पुरुष के जीवन का ज्ञापन/प्रकृति पर ही आधारित है। प्रकृति यानी नारी/नाड़ी के विलय में पुरुष का जीवन ही समाप्त!" (पृ. ३९२-३९३) "पुरुष वासना का दास हो/वासना की तृप्ति-हेतु परिक्लान्त पथिक की भाँति/प्रकृति की छाँव में आँखें बन्द कर लेता है,/और/यह अनिवार्य होता है पुरुष के लिए तब!" (पृ. ३९३) “रक्ता-आसक्ता-सी लगती है/पुरुष में प्रकृति "तब !" (पृ. ३९३) “पुरुष और प्रकृति/इन दोनों के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना/मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र ! खेल खेलने वाला तो पुरुष है/और/प्रकृति खिलौना मात्र ! स्वयं को खिलौना बनाना/कोई खेल नहीं है, विशेष खिलाड़ी की बात है यह !" (पृ. ३९४)
""प्रकृति का प्रेम पाये बिना/पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं' ...पुरुष की सेवा के लिए/सदा तत्परा मिलती जो/दासी-सी
छाया ललित छवि छाया की ललित छवि-सी..!" (पृ. ३९५) यह है पुरुष और प्रकृति का सहज स्वाभाविक चित्रण। संन्यास आश्रम राग-शृंगार और भोग से विरक्ति का ही आश्रम है । ध्यान-मग्न होने में राग-शृंगार बाधक माने गए हैं । जहाँ ये बाधक नहीं हैं वह स्थिति अध्यात्म साधना में सिद्ध योगियों की है। इस स्तर पर पहुँचने वाले योगी नहीं के बराबर हैं। जैसे योगीराज महाराज जनक और ऋषि वेद व्यास आदि ही कुछ नियम के अपवाद स्वरूप हैं। हाँ, माधुर्य भाव की साधना में राग-शृंगार का स्थान है। इसी प्रकार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है, जैन दर्शन की इस मान्यता से सनातन हिन्दू धर्म सहमत नहीं है। किन्तु इसके क्या, यहाँ हमें जैन दर्शन और सनातन दर्शन की तुलना और समीक्षा नहीं करनी है।
जन्म के बाद आचरण के अनुरूप उच्च-नीच रूप को स्वीकार करने की पद्धति अति उत्तम है। 'वर्ण-संकर नहीं, वर्ण-लाभ' शीर्षक इसी आशय से सम्बद्ध है । जन्म के पश्चात् चलन-आचरण की कसौटी विवेक संगत और वैज्ञानिक है। यज्ञोपवीत संस्कार की मान्यता इसी आशय की है। जन्म मात्र से ही जाति बोध नहीं होता है। जन्म से सभी समान हैं। इसके पश्चात् के सुसंस्कारों के प्रभाव से अन्तर होता जाता है । महर्षि विश्वामित्र को राजर्षि से ब्रह्मर्षि की पदवी मिलना इसी सुसंस्कार की मान्यता का द्योतक है।