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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 235 यह"तो''अनुभूत हुआ हमें,/...'तुम्हारी भावना पूरी हो' ऐसे वचन दो हमें,/बड़ी कृपा होगी हम पर।" (पृ. ४८५) साधु ने सही दिशा दी कि आत्मा का उद्धार तो अपने ही पुरुषार्थ से हो सकता है। 'शाश्वत सुख' वचनों से बताया नहीं जा सकता, वह तो निजी साधना से प्राप्त आत्मोपलब्धि है। 'वचन' नहीं, मात्र प्रवचन दिया जाता है। विश्वास करो, साधना से मंज़िल पर विश्वास की अनुभूति होगी। यहाँ कहना यह है कि आतंकवाद अपनी उसी मस्ती में महान् योगी, विरागी साधु से भी कहता है कि"तुम्हारी भावना पूरी हो/ऐसे वचन दो हमें।" पर साधु तो साधु है, उसे आतंक से क्या आतंकित होना है । उसको पुरुषार्थ से आत्मोपलब्धि का सीधा रास्ता बतला दिया। संक्षेप में, मंगल घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है, जो सेठ की श्रद्धा के आधार हैं। अपक्व रूप में कुम्भ अग्नि से प्रार्थना करता है कि मेरे दोषों को जला दें। दोष-मुक्त होना ही सही जीवन है और तुम्हें किसी के दोषहरण से परमार्थ ही मिलेगा । अग्नि परीक्षा के पश्चात् कुम्भ की भावना कितनी सात्त्विक हो जाती है कि उसे पक्व रूप प्राप्त हो जाने पर उसमें जलधारण की क्षमता आ जाएगी, जिससे गुरुजनों का पाद-प्रक्षालन हो सके या किसी प्यासे की प्यास बझ सके, और इन सेवा के अवसरों से जीवन धन्य हो जाएगा। चौथे खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' का शीर्षक भी चरितार्थ हो जाता है । इस अग्नि परीक्षा के पश्चात् घट में भी यह सात्त्विकता व्याप्त दीखती है, क्योंकि अपने में जलधारण करने की क्षमता पाकर पर वह सेवा हेतु ही आतुर और लालायित है। ग्रन्थारम्भ से पूर्व प्रारम्भ में ही प्रस्तवन' और 'मानस-तरंग' शीर्षक के अन्तर्गत 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचना का हेतु और उसमें समाहित श्रमण संस्कृति के पोषक जैन दर्शन पर सूत्रवत् प्रकाश डाला गया है जिससे काव्य में जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्त बीज रूप में उदघाटित हए हैं। वस्तुत: जैन दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य रूप में स्वीकारा है, सृष्टिकर्ता के रूप में नहीं। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सष्टिकर्ता. पोषक और संहारक रूप में मानना ही नास्तिकता है। इस धर्म की यह भी मान्यता है कि 'रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है। शुद्ध चेतना ही उपास्य देवता है, जो सुसुप्त चेतना शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा है । इसमें वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था विधान को भी स्वीकार किया गया है । सम्भवत: इसीलिए संकर-दोष से बचने के साथ ही वर्ण-लाभ को जीवन की सफलता माना गया है । वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवन्त, सशक्त और सबल बनाने हेतु ही इसके द्वारा सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट कुरीतियों और दोषों का निवारण करना है, और इसके साथ ही शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर सहज भाव से मोड़ना है।' उपर्युक्त मंगलमयी संकल्पों की पूर्ति हेतु ही इस काव्य का सृजन और नामकरण हुआ है। यह कृति अधिक परिमाण में काव्य है या अध्यात्म, कहना कठिन है। लेकिन निश्चय ही यह आधुनिक जीवन का अभिनव शास्त्र है, जिसे हम अध्यात्ममय अथवा अध्यात्मबोधक काव्य कह सकते हैं। जैसा कि 'मानस-तरंग' से विदित है कि रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में वैराग्य का उभार आता है। उसकी पुष्टि में ही पुरुष-प्रकृति के सहज आकर्षण का चित्रण कवि ने कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है : 0 “प्रकृति से विपरीत चलना/साधना की रीत नहीं है। बिना प्रीति, विरति का पलना/साधना की जीत नहीं।"(पृ. ३९१)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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